1 क्या इंदिरा गांधी वाकई सबसे ताकतवर भारतीय प्रधानमंत्री थीं?

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ताकतवर एक तुलनात्मक विशेषण है। प्रतिद्वंदी बदलने के साथ ही इसमें बदलाव आ जाता है। उदाहरण के लिए, बिल्ली चूहे से और कुत्ता बिल्ली से ज्यादा ताकतवर है। एक इकाई के रूप में शेर सबसे ज्यादा ताकतवर है, लेकिन हायना का झुण्ड उसे खदेड़ देता है !!
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किसी भी प्रधानमंत्री की ताकत का आकलन करने के लिए हमें ये देखना चाहिए कि अमुक परिस्थितियो में अपने सबसे निकटस्थ एवं शक्तिशाली प्रतिद्वंदी के सामने उसकी हैसियत क्या थी।
हमारा मानना है कि, कोई भी नेता कभी देशभक्त या गद्दार नहीं होता है। किन्तु एक बिंदु ऐसा आता है, जब उसे चुनना होता है कि अपने सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी से टकराव लेने के लिए वह कितना जोखिम उठाने को तैयार है। जोखिम उठाने की यही क्षमता साधारण नेता को असाधारण बनाती है।

यहां हम स्टेप बाई स्टेप एक एक मुद्दो की सहायता से समझेंगे कि असिलियत क्या है ?समझेंगे कि इंदिरा गांधी सबसे ताकत प्रधानमंत्री थीं या नहीं!

(i) प्रधानमंत्री का सबसे शक्तिशाली प्रतिद्वंदी :

यह गलत धारणा है कि, पीएम का सबसे ताकतवर एवं निकटस्थ प्रतिद्वंदी विपक्ष होता है। यह बात ठीक है कि, विपक्ष पीएम का प्रतिद्वंदी होता है। लकिन किसी भी राजनैतिक पार्टी की शक्ति का स्त्रोत धनिक वर्ग होते है। यदि धनिक वर्ग विपक्ष को सहयोग देना शुरू करेंगे तो विपक्ष की ताकत बढ़ती जायेगी, और यदि धनिकों का सहयोग पीएम के साथ है तो विपक्ष या पीएम के राजनैतिक प्रतिद्वंदी पीएम को हिला नहीं पाएंगे।

धनिक वर्ग से आशय है – आभिजात्य वर्ग, बिजनेस एलिट, औद्योगिक घराने, व्यापारिक समूहों के मुखिया आदि। ये ताकतवर इसीलिए है क्योंकि इनके पास पैसो का समंदर होने के साथ साथ वास्तविक एवं स्थायी ताकत है। अपनी इस ताकत को बनाए रखने के लिए इन्हें पीएम को कंट्रोल में रखना होता है।

(ii) धनिक नेताओं पर नियंत्रण क्यों चाहते है ?

क्योंकि उन्हें ऐसे क़ानून चाहिए जिससे वे ज्यादा पैसा बना सके, और उन्हें ऐसे क़ानून नहीं चाहिए जिससे उनके बिजनेस में कम्पीटीशन बढे। क़ानून छापने का काम सरकार का है। अत: उन्हें सरकार में अपने आदमी चाहिए। या तो वे चंदा देकर ऐसे लोगो को सत्ता में लायेंगे जो उन्हें मुनाफा देने वाले क़ानून छापे या फिर सत्ता में बैठी पार्टी को इसके लिए पैसा देंगे।
जब तक नेता और धनिक वर्ग में सहयोग बना रहेगा तब तक रूटीन हलचलों से इतर राजनीती शांत नदी की तरह बहती रहती है। लेकिन जैसे ही पीएम एवं धनिक वर्ग में टकराव होगा वैसे ही आपको डिस्टर्बेंस दिखाई देगा। और यह डिस्टर्बेंस वास्तविक होता है, पेड मीडिया में नजर आने वाला फर्जी डिस्टर्बेंस नहीं।

और भी कुछ बातों को जान लेते है –

(1) भारत में ताकतवर कम्पनियों के मालिको का आगमन :
जूरी सिस्टम* आने के कारण यूरोपीय देशो ने तेजी से तकनिकी विकास किया और औद्योगिक क्रांति आयी। बड़े पैमाने पर कारखाने लगने से कारखाना मालिक तेजी से पैसा बनाने लगे। ज्यादा मुनाफा बनाने के लिए उन्हें सस्ते कच्चे माल की जरूरत थी। कच्चा माल यानी – खनिज !!

पेड इतिहासकारों ने औद्योगिक क्रांति की मुख्य वजह जूरी सिस्टम को इतिहास की पाठ्यपुस्तको में से निकाल कर इसे “पुनर्जागरण” नामक काफी रोमांटिक थ्योरी पर थपा दिया है।. जब यूरोपीय लोग बेहतर वस्तुएं बनाने लगे तो उन्होंने माल बेचने के लिए अन्य देशो में जाना और अमुक देशो का कच्चा माल लूटने के लिए वहां कंट्रोल भी लेना शुरू किया। कंट्रोल लेने के लिए सेना की जरूरत थी। अत: यूरोपीय कम्पनियों के मालिको ने अपनी सेनाएं भी रखनी शुरू की। वे राजाओ को भुगतान करके भी सेनाएं किराये पर ले लिया करते थे, और जो मुनाफा वे बनाते उसमें से राजा को हिस्सा दे देते थे। इस तरह जूरी सिस्टम आने के 200 साल के भीतर यूरोपीय देशो में कारोबार का एक बिलकुल नया सेट अप बन चुका था। .

सेट अप यह था कि यूरोपीय कम्पनियों के मालिक अपना कारोबार फैलाने एवं खनिज लूटने के लिए राजाओं की सेना का खुले तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे, और राजा पैसा बनाने के लिए कारोबारियों को अपनी सेना दे रहा था !! यह सेट अप आज भी जस का तस बना हुआ है, और ब्रटिश-अमेरिकी कम्पनियों के मालिक कारोबार बढाने के लिए अपनी सेनाओ का इस्तेमाल करते है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी कम्पनियों ने ईराक का तेल लूटने के लिए सेनाओं का इस्तेमाल किया और अब वे ईरान का तेल लूटने के लिए सेनाओं का इस्तेमाल करेंगे।
पेड इतिहासकारों ने इस सेट अप को पाठ्यपुस्तकों से पूरी तरह से गायब कर कर दिया है, और कहीं लिखा भी है तो इसे इतनी अप्रत्यक्ष भाषा में लिखा है कि लिखना न लिखना बराबर है। . प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध कोयले, कच्चा तेल और स्टील के लिए लड़ा गया। खाड़ी युद्ध भी कच्चे तेल के लिए हुआ था। ब्रिटिश-फ्रांसिस संघर्ष का कारण भी खनिज थे। इसी खनिज को लूटने के लिए ब्रिटिश-फ़्रांसिस कम्पनियों ने पूरी दुनिया में उपनिवेश स्थापित किये। अंग्रेज भारत से जो भी लूट रहे थे, वह खनिज थे। खनिज के लिए ही ब्रिटिश कम्पनी भारत आयी थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्राइवेट आर्मी का साइज तब इंग्लेड की शाही फ़ौज से डबल था !!

(2) ब्रिटिश धनिकों द्वारा सत्ता हस्तांतरण :

द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उनकी कमर टूट गयी, और उन्होंने पूरी दुनिया से अपने उपनिवेश समेटने शुरू कर दिए थे। . जाने से पहले 1946 में गोरे अपने वफादारो ( टाटा, गोदरेज, बिरला, डालमिया, बिरला, साराभाई आदि देशी धनिक ) को कई सारे अतिरिक्त लाभ एवं सुरक्षा ( माइनिंग राइट्स, लाइसेंस एवं जमीने ) आदि देकर गए थे, और यह तय किया गया था कि जवाहर लाल इन उद्योगपतियों के हितों को सरंक्षित करेंगे। . भारतीय उद्योगपतियों की निर्भरता यह थी कि, इनके सभी कारखाने ब्रिटिश-अमेरिकी धनिकों की मशीनों पर चल रहे थे। यदि गोरे भारत के अन्य उद्योगपतियों को ये मशीने भेजने लगते, या इन्हें स्पेयर पार्ट्स भेजना बंद कर देते तो इन्हें घाटा होता। अत: इन्हें ब्रिटिश धनिकों का सपोर्ट चाहिए था। इस तरह ब्रिटिश धनिक एवं देशी धनिक एक ही पाले में थे, और उन्हें अपने फायदे के लिए भारत के पीएम को कंट्रोल करके रखना था।भारत के देशी राजा भी आजादी के समय ब्रिटिश धनिकों के पाले में थे।
ब्रिटिश-अमेरिकी* : अब यहाँ से भारत की राजनीती में ब्रिटिश धनिकों के साथ अमेरिकी धनिक भी जुड़ जाते है। जब ब्रिटेन अपने उपनिवेश खाली कर रहा था तभी अमेरिका ने इन देशो के बाजार को कब्जाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। किन्तु अमेरिका का मॉडल एकदम अलग था। इसमें विश्व बैंक से लेकर, WTO, आईएम्ऍफ़ आदि सभी शामिल है।

(3) धनिकों को देश में किस तरह के कानून चाहिए ?
धनिक वर्ग के पास ताकत इसीलिए है क्योंकि वे ऐसी तकनीकी वस्तुएं बनाने की फैक्ट्रियां चला रहे है, जिनकी मांग पूरी दुनिया में है। वे इस तकनिकी उत्पादन पर अपना नियंत्रण ( मोनोपॉली) बनाये रखना चाहते है। उदाहरण के लिए भारत में तेल के भंडार है, किन्तु भारत के पास तेल निकालने की मशीनों को बनाने की तकनीक नहीं है। तेल निकालने की तकनीक सिर्फ 3 देशो के पास है –
अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस
रूस
चीन
इसी तरह से फाइटर प्लेन, लेसर गाइडेड बम, ड्रोन, लेसर गाइडेड मिसाईल आदि बनाने की तकनीक भी सिर्फ इन्ही 3 देशो के धनिकों के पास है। और इन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए काफी पैसा और संसाधन खर्च करने पड़ते है कि अन्य देश के कारखाना मालिक यह तकनीक न जुटा पाए।

3.1. तकनिकी उत्पादन के प्रतिस्पर्धी बाजार को 4 क़ानून तय करते है –
अदालतो के क़ानून
पुलिस के क़ानून
जमीन के क़ानून
टैक्स के क़ानून
उन्हें थानों-अदालतों की प्रणाली ऐसी चाहिए कि, जरूरत पड़ने पर वे पैसा फेंक कर जजों को खरीद सके, या उसे दबा सके। यदि वे जज-पुलिस को काबू नहीं कर पायेंगे तो उनका धंधा ख़त्म हो जायेगा। एक उदाहरण से इसे समझिये।
मान लीजिये कि, X एक ऑटोमोबाइल इंजीनियर है और कार के ऐसे 1200 cc इंजन का अविष्कार करता है जो 30 का एवरेज देता है। अब यदि टाटा, हुंडई, और मारुती को अपना धंधा बचाना है तो उन्हें इस आदमी को फैक्ट्री लगाने से रोकना होगा। यदि देश में व्यवस्था इस प्रकार की है कि पुलिस एवं जजों को ख़रीदा या दबाया नहीं जा सकता तो वे इस आदमी को रोक नहीं पायेंगे। उन्हें इस तरह की व्यवस्था चाहिए कि वे इसे पेटेंट लेने , जमीन खरीदने ,फंड जुटाने, जमीन का अंतरण कराने, उत्पादन के लिए आवश्यक अनुज्ञा लेने, एवं विभिन्न विभागों से क्लियरेंस लेने से रोक सके आदि।
असल में वे इसे एकदम रोकेंगे नहीं। लेकिन इसके हर सरकारी काम में इतने अडंगे डालते जायेंगे कि यह बरसों तक इधर से उधर घूमता रहेगा, और कभी फैक्ट्री खड़ी नहीं कर पायेगा। देरी होने से इसकी लागत बढ़ने लगेगी और इसके निवेशक प्रोजेक्ट में से पैसा खींच लेंगे।

3.2.अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों को भारत के कानूनों में क्या इंटरेस्ट है ?
देखिये, यदि X ने ऐसी कम्पनी खड़ी कर ली कि वह टाटा-महिंद्रा-हुंडई को लीड करने लगता है, तो मार्केट में बने रहने के लिए टाटा-महिंद्रा-हुंडई X से इंजन खरीदने लगेंगे और फिएट, फोर्ड आदि की बैंड बज जायेगी। अभी ज्यादातर कम्पनियों को कारो के इंजन फिएट भी बेचता है। और X यदि तकनीक में आत्मनिर्भर हो जाता है तो 10 साल बाद वह जेसीबी (क्रेन) की टक्कर के इंजन बनाने लगेगा और JCB के हाथ से पूरे इण्डिया का बाजार निकल जायेगा !! JCB ब्रिटेन की कम्पनी है और अभी पूरा भारत JCB पर ही चल रहा है।
यदि भारत में JCB जैसा इंजन बनाने का फाउन्डेशन बन जाता है तो अगले 10 साल में भारत में हाई स्पीड ट्रेनों के इंजन बनने लगेंगे। और यदि पुलिस-अदालतें सुधार दी जाती है तो इस तरह के कई X बाजार में आ जायेंगे और भारत फाइटर प्लेन के इंजन तक बनाने लगेगा।

मेरा बिंदु यह कि, यदि स्थापित धनिक वर्ग पुलिस-जज-अधिकारी पर से नियंत्रण खो देता है, तो अगले 10 वर्षो में ऐसी काफी कम्पनियां बाजार में आ सकती है, जो इनका बाजार खाने लगेगी, और इसीलिए उन्हें भारत के जजों-पुलिस पर पूरा कंट्रोल चाहिए। तो ये जो औद्योगिक घराने आप दशको से देख रहे है, वे ऐसे ही शीर्ष पर नहीं बने हुए है। उन्हें निरंतर शीर्ष पर बने रहने के लिए राजनीती में काफी निवेश करना पड़ता है।
किन्तु इतने बड़े देश में लाखों लोग कारोबार कर रहे है, और इनमें से ही कई ऐसे भी जो कल चुनौती बन सकते है। अब इतने बड़ी संख्या में लोगो पर नजर नहीं रखी जा सकती। इसका इलाज सिर्फ क़ानून है।
वे इस तरह के क़ानून छपवाते है कि जज, पुलिस एवं अधिकारी वर्ग बेधडक होकर लोगो से पैसा खींच सके। ऐसे क़ानून बनाने के बाद उन्हें कभी जज एवं पुलिस को कुछ कहना नहीं पड़ता कि इसे परेशान करो उससे पैसा लो आदि। जज-पुलिस-अधिकारी-अधिकारी हर समय पैसा बनाने वालो की घात में रहेंगे, और इनसे पैसा खींचते रहते है। इस तरह 90% कम्पीटीशन तो ये लोग फर्स्ट राउंड में ही ख़त्म कर देते है। मतलब उनकी भ्रूण हत्या हो जाती है।

मैं इसे सांप छोड़ना कहता हूँ। जिस तरीके से सांप-सीढी के बोर्ड में सांप और सीढियाँ होती है सांप काट ले तो गोटी निचे आ जाती है, उसी तरह से ये कारखाना लगाने एवं चलाने के रास्ते में कई तरह के कानूनी सांप छोड़ कर रखते है।
आदमी जमीन लेने जाएगा तो कीमतें इतनी ज्यादा है कि, ज्यादातर खिलाड़ी खेल ही नहीं पायेंगे। फिर जब वह जमीन का व्यवसायिक अंतरण करने जाएगा तो NOC के लिए सरपंच, तहसीलदार, कलेक्टर फिर बिजली कनेक्शन के लिए ExEN, पर्यावरण की NOC और इसी तरह से जितने सरकारी अधिकारियों के पास जायेगा तो या तो पैसा देगा, या फिर महीनो तक उनके चक्कर लगाएगा। ये सब सिस्टम के कानूनी सांप है, जो कारोबारियों को या तो काटते रहते है, या उनकी फ़ाइल अटका कर उनकी लागत बढ़ाते रहते है। लेकिन टाटा-बटाटा का काम होगा तो वो मंत्री से एक फोन कराएगा और तुरंत काम हो जाएगा !! इस तरह सिस्टम का यह सारा भ्रष्टाचार छोटे कारखाना मालिको की लागत निरंतर बढाकर उन्हें आगे बढ़ने नहीं देता।
और जो लोग ऊपर निकलकर शीर्ष उद्योगपतियों को चुनौती देते लगते, उन्हें निपटाने के लिए जजों एवं उच्च अधिकारीयों का इस्तेमाल किया जाता है।
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(4) धनिकों द्वारा राजनैतिक समुदाय पर नियंत्रण :
राजनीती का मतलब है कानून छापना। क़ानून छापने का काम सरकार करती है। क़ानून छापने वाले लोगो को नियंत्रित करने के लिए धनिकों को निम्नलिखित वर्गों को नियंत्रित करना होता है :
राजनैतिक पार्टियाँ
राजनैतिक कार्यकर्ता
जनता

4.1. राजनैतिक पार्टियाँ : नेताओं को कंट्रोल में रखने के लिए उन्हें चुनावी प्रक्रिया में केन्द्रीयकरण चाहिए। वे इस तरह की व्यवस्था चाहते है कि बिना ढेर सारे पैसे के राजनैतिक पार्टियाँ बनाना एवं चुनाव लड़ना काफी मुश्किल हो जाए। इससे उन नेताओं कार्यकर्ताओ के उभरने की सम्भावना कम हो जाती है, जिन्हें धनिक वर्ग का समर्थन हासिल नहीं है।
मतलब वे पूरे देश में सिर्फ बड़ी पार्टियाँ चाहते है, और इन बड़ी पार्टियों का स्ट्रक्चर भी ऐसा चाहते है कि, केन्द्रीय नेता या दर्जन भर केन्द्रीय नेताओं के माध्यम से पूरी पार्टी को कंट्रोल किया जा सके। कोंग्रेस की CWC एवं बीजेपी का पार्लियामेंट्री बोर्ड वे संस्थाएं है जिनमे बैठे दर्जन भर लोग पूरी पार्टी को कंट्रोल करते है। भारत की अन्य सभी पार्टियों में भी आपको स्ट्रक्चर कुछ ऐसा मिलेगा कि 100-50 लोग ही पूरी पार्टी चलाते है। धनिक वर्ग पार्टी की नीति बनाने वाले इन शीर्ष लोगो पर बराबर पकड़ बनाए रखता है ।

4.1.1. राजनैतिक पार्टियाँ कैसे धनिक वर्ग पर बुरी तरह से निर्भर है ?
मान लीजिये, X किसी मुद्दे पर चुनाव लड़ता है या एक राजनैतिक पार्टी बनाता है। मान लीजिये कि, पार्टी X में कुछ 1000 समर्पित कार्यकर्ता है और सभी कार्यकर्ता मध्यम आय वर्ग से आते है। मान लीजिये कि, किसी जिले में कुल 20 लाख मतदाता है। तो पहली शर्त यह है कि X को अपना एजेंडा 20 लाख लोगो तक पहुंचाना है। पूरे जिले में 20 लाख लोगो तक पहुँचने के लिए X के पास अब 2 रास्ते है :

4.1.1a पेड मीडिया की सहायता लिए बिना प्रचार :

जिला स्तर पर : X को जिले की सभी विधानसभाओ, तहसीलो, पंचायतो एवं वार्डो तक अपनी बात पहुँचाने के लिए पेम्पलेट वितरित करने होंगे, पुस्तिकाएँ बांटनी होगी, कई होर्डिंग, बैनर-साइन बोर्ड आदि लगाने होंगे। जिला स्तर पर ये सब करने के लिए कम से कम 1 करोड़ का बजट होना चाहिए। और तब भी सभी मतदाताओ तक पहुँचने में कम से कम 10 साल लगेंगे।
राज्य स्तर पर : यदि यह जानकारी पूरे राज्य के 5 करोड़ नागरिको तक पहुंचानी है तो कम से कम 100 करोड़ एवं 15 वर्ष की जरूरत है !! वो भी तब जब X के पास प्रत्येक जिले में काम करने के लिए कम से कम 1000 अनपेड कार्यकर्ता हो !!
राष्ट्रीय स्तर पर : और पूरे देश के 90 करोड़ नागरिको तक पहुंचने के लिए 25-30 वर्ष एवं 5,000 करोड़ रुपयों की जरूरत है !!इसके साथ ही देश में काम करने के लिए लगभग 1000600 = 6,00,000 अनपेड कार्यकर्ता भी चाहिए। अब मान लीजिये कि, पार्टी X के सभी 1000 कार्यकर्ता 100 रू मासिक सदस्यता शुल्क देते है तो 1000100 = 1 लाख महिना एवं साल भर का 12 लाख रुपया होता है। मतलब 1 करोड़ का बजट खड़ा करने में आपको 10 साल लगेंगे !! अब इस मॉडल में 2 बड़ी समस्याएं है।

पहली, किसी शहर में 1000 ऐसे राजनैतिक कार्यकर्ता ढूंढ निकालना, जो बिना पैसे के काम करने और 100 रू महिना देने के लिए राजी हो बहुत ही मुश्किल काम है। यदि आप कोई धर्मार्थ या सामाजिक कार्य ( पेड़ लगाना, परिंडे बांधना, कम्बल बांटना आदि ) के कारोबार में है तो कार्यकर्ता बहुत आसानी से मिल जायेंगे। लेकिन राजनैतिक एजेंडे पर 10 अनपेड कार्यकर्ताओ को जोड़ने में भी आपको साल भर लग जाएगा !!

4.1.1b. पेड मीडिया की सहायता से :

जिला स्तर पर : जिले के सबसे ज्यादा सर्कुलेशन वाले 2 अखबारों में हर सप्ताह कोई न कोई पेड न्यूज, आलेख या विज्ञापन चाहिए। जिला स्तर पर A4 साइज के विज्ञापन की रेट 1 लाख से कम नहीं होती। मतलब साल भर के बजट के लिए आपके पास कम से कम 5 करोड़ होना चाहिए।
राज्य एवं राष्ट्रिय स्तर : के मीडिया में जाने के लिए आपको पैसा नहीं चाहिए। वहां पर आपको स्पोंसर की जरूरत होती है। मतलब सिर्फ पैसा देकर आप राज्य या राष्ट्रिय स्तर के मीडिया में कवरेज नहीं ले सकते। राष्ट्रिय स्तर के मीडिया में आने के लिए यह जरुरी है कि आपका एजेंडा उन लोगो के खिलाफ न हो जो पिछले कई सालों से मीडिया को चलाने के लिए पेमेंट कर रहे है। मतलब यदि आप अदालतें-पुलिस एवं सेना को सुधारने के एजेंडे पर काम कर रहे है तो पेड मीडिया का रास्ता बंद हो जाता है।

अब प्रचार के तरीके में पेड मीडिया का इस्तेमाल होने से एक बहुत बड़ा एवं निर्णायक अंतर आता है। असल में जब प्रचार पेड मीडिया के माध्यम से होता है तो लोग आपके साथ जुड़ने के लिए आने लगते है, अन्यथा हर व्यक्ति तक आपको खुद जाना पड़ेगा।
मतलब, पेड मीडिया का इस्तेमाल करके सिर्फ 3 से 4 वर्ष में एक बिलकुल नयी पार्टी बनाकर राष्ट्रिय स्तर पर पहचान भी बनायी जा सकती है, और किसी राज्य का मुख्यमंत्री भी बना सकता है। किन्तु आपके पास यदि 10,000 करोड़ हो लेकिन आपके पास मीडिया एक्सेस न हो तो आप उस पार्टी को बीट नहीं कर पाओगे जिसके पास मीडिया एक्सेस है !!
क्योंकि जो स्पीड मीडिया के पास है, आप वह स्पीड पैसा खर्च करके नहीं ला सकते। मतलब यहाँ रोल तकनीक का है। पेड मीडिया के पास ऐसी तकनीक है कि वे यदि कोई सूचना देश के करोड़ो नागरिको तक पहुँचाना चाहते है तो वे ऐसा तुरंत कर सकते है। और इस तकनिकी बढ़त को पैसे से पूरा नहीं किया जा सकता !!
अब यदि पार्टी चुनाव भी लड़ती है तो ये पूरा बजट डबल या ट्रिपल हो जाएगा, और प्रत्येक चुनाव में यह बजट बढ़ेगा !!
जिनके पास पैसे की बारिश करने के कारोबार है, सिर्फ वही इस खेल में पैसा लगाते है। 2-4 करोड़ रू सालाना कमाने वाले इस खेल में हाथ नहीं डाल सकते। मतलब जब तक आपके साथ धनिक वर्ग न हो तब तक किसी भी प्रकार का राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं किया जा सकता ।

4.2. राजनैतिक कार्यकर्ता : किसी भी देश में कुछ 2 से 3% का एक वर्ग होता है, जो राजनैतिक घटनाक्रम में रुचि लेता है, और उस पर निगाह बनाये रखता है। इन 2% लोगो को एक्टिविस्ट या कार्यकर्ता कहते है। इनमे छोटे बड़े कई नेता हो सकते है, स्वतंत्र कार्यकर्ता हो सकते है, या ग्रास रूट वर्कर हो सकते है। किसी भी पॉलिटिकल पार्टी में 98% यही लोग होते है।
इस वर्ग से ही विपक्ष एवं राजनैतिक पार्टियाँ बनती है, आन्दोलन होते है, धरने, जाम, मांगे, बवाल, सलाहे, विरोध, प्रदर्शन आदि तरह की गतिविधियाँ भी इन्ही के द्वारा संचालित की जाती है। इन्हें आप पॉलिटिकल ओपिनियन मेकर भी कह सकते हो। आजकल इनमे से ज्यादातर कार्यकर्ताओ को आप सोशल मीडिया पर उन मुद्दों पर गदर मचाते हुए देख सकते है, जो इन्हें डेली बेसिस पर पेड मीडिया पकड़ाता है।
धनिकों को इन 2 से 3% लोगो के समूह को कंट्रोल करना होता है। यदि इनमे से 1% लोग भी यदि किसी क़ानून का समर्थन या विरोध करने लगते है तो ये लोग जनता का उतना समर्थन जुटा सकते है कि पीएम को फैसले पलटने के लिए बाध्य कर सके । दुसरे शब्दों में, ये लोग ऐसे फैसले के खिलाफ आन्दोलन खड़ा कर सकते है। 2% की यह संख्या भारत जैसे देश में लगभग 2 करोड़ के आस पास बैठती है, मतलब यह संख्या इतनी बड़ी है कि न तो इन्हें दबाया जा सकता है, न मारा जा सकता है, और न ही इन्हें खरीदा जा सकता है।
देश भर के इन करोड़ो राजनैतिक कार्यकर्ताओ को मेनेज करने के लिए वे किन तरीको का इस्तेमाल करते है, यह काफी विस्तृत विषय है।

कुछ संक्षेप बिंदु मैंने निचे दिए है :

उन्हें विभाजित किया जाता है : एकता एवं संगठन एक विभाजनकारी सिद्धांत है। पेड पाठयपुस्तको के माध्यम से उन्होंने भारत के 90% नागरिको के दिमाग में यह बात बिठा के रखी है कि कोई भी बदलाव लाने या शक्ति जुटाने के लिए उन्हें किसी न किसी संगठन के निचे “एक” हो जाना चाहिए। “क्लोन नेगेटिव” होने के कारण इनमें से ज्यादातर कार्यकर्ता देश को बचाने के नाम पर एक दुसरे के संघठनो एवं नेताओं के खिलाफ काम करना शुरू कर देते है।
उन्हें बड़े नेताओं के पीछे लटकाया जाता है : आपको पेड मीडिया एवं सभी पाठयपुस्तको में “नेतृत्व” शब्द मन्त्र की तरह दिखाई देगा। वे गलत तरीके से यह स्थापित करते है कि, सभी प्रकार के बदलाव लाने के लिए एक नेता चाहिए होता है। वे पेड मीडिया के माध्यम से नेताओ को स्थापित करते है, और फिर एकतावादी एवं संगठन में काम करने के लिए सधाए गए कार्यकर्ता अपने आप इन बड़ी पार्टियों एवं ब्रांडेड नेताओं का अनुसरण करने लगते है।
उनकी ऊर्जा एवं समय बर्बाद किया जाता है : यह राजनीती में सबसे पेचीदा चाल है। पेड मीडिया के माध्यम से कार्यकर्ताओ को विचार, सिद्धांत, वाद, बयान, भाषण आदि पर बहस करवाने में व्यस्त रखा जाता है। आपको नेता एवं कार्यकर्ता हमेशा इसी बात पर बहस करते मिलेंगे कि अमुक पार्टी / नेता की विचारधारा क्या है, उसने आज क्या बयान दिया है, और कल क्या बयान दिया है। मुख्य उद्देश्य यह होता है कि, कार्यकर्ताओ ड्राफ्ट विहीन चर्चा में व्यस्त रखा जाए।
सार रूप में, जो नेता एवं राजनैतिक दल उनके हितों को सरंक्षित करने वाले कानूनों का समर्थन करता है वे उन्हें फंडिंग+पेड मीडिया का इस्तेमाल करके उसका कद बढ़ाते है, और लाखों राजनैतिक कार्यकर्ताओ को इनके पीछे चिपका देते है। धनिक वर्ग पेड मीडिया के माध्यम से यह सुनिश्चित करता है कि धनिक वर्ग के एजेंडे का विरोध करने वाली पार्टी / नेता कभी उभर न सके, और ज्यादा से ज्यादा कार्यकर्ताओ को बड़ी राजनैतिक पार्टियों एवं ब्रांडेड नेताओं के पीछे भेजा जा सके। इस तरह वे कार्यकर्ताओ की एक बड़ी आबादी को आवश्यक कानूनों की मांग करने की जगह ब्रांडेड नेताओं एवं ब्रांडेड पार्टियों के साथ अंगेज कर देते है !!

4.3. आम नागरिक या जनता :यदि जनता को यह बात समझ आ जाती है कि, पीएम धनिकों के कंट्रोल में है तो वे मताधिकार का प्रयोग करके पीएम को निकाल देंगे !! तो पीएम को कंट्रोल करने का फायदा सिर्फ तब तक है जब तक धनिक वर्ग यह बात जनता से छिपाने में कामयाब है कि, वे पीएम को कंट्रोल कर रहे है !! आम तौर पर जनता की पॉलिटिक्स के बारे में कोई राय या रुचि नहीं होती है। वे प्रचार की चपेट में आकर नेता के बारे में एक मोटा मोटी राय बनाते है, और उस आधार पर वोटिंग कर देते है।
जनता की राय को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से पेड मीडिया का इस्तेमाल किया जाता है।
पेड मीडिया में निम्लिखित स्त्रोत शामिल है :
कक्षा 1 से स्नातकोत्तर तक की सामाजिक विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीती विज्ञान, लोक प्रशासन की सभी पाठ्यपुस्तकें पेड मीडिया है।
मुख्य धारा की सभी फ़िल्में, धारावारिक, वृत्त चित्र पेड मीडिया है।
समाज-राजनीती-अर्थशास्त्र पर लिखी गयी सभी ज्ञान देने वाली किताबें पेड है। यदि इसमें से किसी पुस्तक को पुरूस्कार मिला है तो यह डबल पेड है।
मुख्यधारा के सभी अख़बार, मनोरंजन चैनल, न्यूज चेनल, पत्रिकाएँ, मैगजीन पेड मीडिया है।
मुख्यधारा के टीवी-अखबार में आने वाले सभी बुद्धिजीवी पेड बुद्धिजीवी है। सभी पत्रकार पेड पत्रकार है। सभी सम्पादक पेड सम्पादक है। सभी क़ानून-संविधान विशेषग्य पेड विशेषग्य है।
दुसरे शब्दों में आपके सभी सामाजिक-राजनैतिक विमर्श के बुनियादी विचारो की बेसिक सप्लाई लाइन पेड मीडिया है।

वे ऊपर दिए गए स्त्रोतों से एक दायरा बनाते है और यह सुनिश्चित करते है कि आपका राजनैतिक विमर्श इस दायरे के भीतर रहे। और केन्द्रीय स्त्रोत होने के कारण वे ऐसा करोड़ो लोगो के साथ कर पाते है।

(5) कब धनिक वर्ग एवं पीएम में टकराव बढ़ जाएगा ?

5.1. खनिज एवं प्राकृतिक संसाधन : अंत में सारी लड़ाई खनिज एवं प्राकृतिक संसाधनों की है। चिल्लर दामों में खनिज खोदने के पट्टे, कारखाने लगाने के लिए मुफ्त में जमीने आदि। यदि पीएम खनिजो की लूट रोकने के क़ानून छापता है तो धनिकों को तुरंत एवं सीधे नुकसान होना शुरू हो जाता है। अत: पीएम घनिक वर्ग में एकदम से टकराव बढ़ जाएगा। और यह टकराव काफी गंभीर किस्म का होगा !!
देश के खनिजों और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनो को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से बचाने के प्रयासो को किस हद तक प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है, इंडोनेशिया इसका उदाहरण है। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो ने साथ के दशक में खनिज सम्पदाओ का राष्ट्रीयकरण कर दिया और भूमि सुधार किये। उसने विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष को देश से निकाल बाहर किया तथा विदेशी निवेश पर रोक लगा दी।
सीआईए और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियो ने इंडोनेशिया की सेना की मदद से 1965 से 1966 के बीच कम्युनिस्ट पार्टी के 10 लाख कार्यकर्ताओ का सिस्टमेटिक कत्ले आम किया। विदेशी कम्पनियो का विरोध कर रहे कम्युनिस्ट पार्टी के सभी नेताओं, कार्यकर्ताओ और समर्थको को ढूंढ ढूंढ कर मौत के घाट उतारा। अमेरिकी सेना एवं सीआईए के सुपरविजन में की गयी यह सर्च एंड हंट ऑपरेशन 4 साल तक चला और एक को भी नही छोडा गया !!
A forgotten genocide

5.2. हथियार निर्माण : ये सबसे सेंसेटिव मामला है। अदालतें, पुलिस एवं कर प्रणाली सुधारने से देश में बड़े पैमाने पर कारखाने लगने शुरू होते है और तकनिकी विकास होने लगता है। और सभी प्रकार का तकनिकी विकास अंततोगत्वा हथियारों की तकनीक की और मुड़ जाता है। जब धनिक वर्ग एवं पीएम में टकराव होता है, तो अंतिम फैसला वास्तविक युद्ध से ही होता है। हथियार निर्माण तकनीक का चरम बिंदु है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास दुनिया के सबसे ताकतवर हथियार बनाने की तकनीक होने की वजह से ही वे अन्य देशो को कंट्रोल करते है।

हथियार बनाने के सिर्फ और सिर्फ 2 तरीके है :
पहला रास्ता: पीएम अदालतें, पुलिस एवं कर प्रणाली को सुधारने के क़ानून छापे, ताकि मुक्त प्रतिस्पर्धा शुरू हो और स्वदेशी कम्पनियां हथियार निर्माण की काबलियत जुटा ले।
दूसरा रास्ता: यह है कि पीएम हथियार बनाने के लिए सरकारी मशीनरी एवं सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल करना शुरू करे।

पहले रास्ते को तो आप भूल ही जाइए। अब दूसरा रास्ता बचता है। पीएम सरकारी संसाधनों से हथियार बनाने की प्रक्रिया को तेज कर सकता है। पर यदि पीएम ऐसा करता है तो अब धनिक वर्ग एवं पीएम को-एग्जिस्ट नहीं कर सकते। तब निर्णायक लड़ाई ही होती है। कोई दया नहीं, कोई अपवाद नहीं, कोई समझौता नहीं।
यदि पीएम सेना को आत्मनिर्भर करने के प्रयास करना शुरू करेगा तो सिर्फ 2 चीजे होगी – या तो पीएम अपनी सेना को इतना आत्मनिर्भर बना ले कि युद्ध टल जाएगा, और या फिर पीएम को युद्ध में जाना पड़ेगा।

अब तुलना के लिए कुछ प्रधानमंत्रियों के उदाहरण से समझते है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में क्या किया कैसे किया और उसका परिणाम क्या हुआ।

(A) जवाहर लाल ( 1947 से 1964 ):
1947 में जवाहर लाल को पीएम की पोस्ट पर ब्रिटिश+भारतीय धनिकों द्वारा अपोइन्ट किया गया था। यदि सरदार पटेल के रहते इलेक्शन हो जाते तो जवाहर लाल पीएम बनने वाले नही थे। अत: चुनावों को टाल दिया गया। और पटेल की हत्या करने के बाद 1951 में ही पहली बार चुनाव कराए गए।
जवाहर लाल के काल में ब्रिटिश+अमेरिकन धनिक भारत की राजनीती को प्रत्यक्ष रूप से कंट्रोल नहीं कर रहे थे। विदेशियों का दखल देशी धनिकों ( टाटा-बटाटा आदि ) के माध्यम से था। लेकिन देशी धनिकों की पकड़ राजनीती पर काफी मजबूत थी।
पेड मीडिया की स्थिति :
मुख्य धारा का प्रिंट मीडिया पूरी तरह से धनिक वर्ग के कब्जे में था। किन्तु प्रिंट मीडिया के पाठक 7-8% से ज्यादा नहीं थे।
अशिक्षा होने के कारण पेड पाठ्यपुस्तकों की चपेट में भी काफी कम आबादी थी। बाद में “सबको पढाओ और शिक्षित करो” टाइप के अभियान चलाकर बड़े पैमाने पर छात्रों को पेड पाठयपुस्तको ( गणित-विज्ञान-वाणिज्य को छोड़कर) के माध्यम से वैचारिक अफीम दी जाने लगी थी।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया जवाहर लाल के समय तक आया नहीं था।

(1) जवाहर लाल के धनिक वर्ग से सम्बन्ध :
1.1. पुलिस : जवाहर लाल ने पुलिस को सुधारने के लिए कोई क़ानून नहीं छापे। [ 10 में से 0 अंक ]
1.2. अदालतें : 1958 तक भारत के कुछ प्रोविंसेस में निचले स्तर पर कमजोर जूरी सिस्टम था। जवाहर लाल ने नानावटी मामले का बहाना बनाकर इसे ख़त्म कर दिया [ ऋणात्मक अंक (- 4 ) ]
1.3. जमीन सस्ती करने के कानून : जवाहर लाल ने लेंड रिफॉर्म्स को रोकने की पूरी कोशिश की। और चूंकि लेंड रिफोर्म्स की मूवमेंट को जूरी प्रोटेक्ट कर रही थी, अत: उसने जूरी सिस्टम ख़त्म कर दिया !!
1.4. स्थानीय कारखाने : जवाहर लाल ने तकनिकी उत्पादन पर टाटा-बटाटा की मोनोपॉली बनाये रखने के लिए लाइसेंस राज=परमिट राज लागू किया !!
लाइसेंस राज क्या था : तब भारत में कारखाना लगाने के लिए सरकार से कई सारे लाइसेंस एवं अनुमतियाँ लेनी होती थी। कारखाने का साइज क्या होगा, कितना उत्पादन करोगे, क्या उत्पादन करोगे आदि। और कारखाना लगाने के बाद भी सरकार जीतने उत्पादन की अनुमति दे उतना ही प्रोडक्शन कर सकते थे। एक फैक्ट्री लगाने के लिए अमूमन 50 से 60 सरकारी विभागों से परमिशन लेनी पड़ती थी, और किसी भी समय सरकार लाइसेंस रद्द कर सकती थी। यह लिखने की जरूरत नहीं है कि प्रत्येक अधिकारी को घूस भी देनी पड़ती थी।
1.5. खनिज की लूट : गोरे अपने वफादारो को जो माइनिंग राइट्स देकर गए थे, जवाहर लाल ने उन्हें जारी रखा। उदाहरण के लिए टाटा को गोरो ने झारखण्ड में 1 रू प्रति एकड़ सालाना की दर को कोयला खोदने के राइट्स दिए थे। जवाहर लाल ने इसे 2 रू करने से भी मना कर दिया था !! अन्य सभी मिनरल्स की लूट भी जारी रही।
1.6. कर प्रणाली : अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने जवाहर लाल को जीएसटी में छूट इसीलिए दे दी थी, क्योंकि जवाहर लाल ने स्थानीय उत्पादन की बैंड बजाने के लिए परमिट राज छाप दिया था। किन्तु टाटा-बटाटा ने जवाहर लाल को मझौले स्तर के कारखानो की नस दबाए रखने के लिए एक्साइज एवं सेल्स टेक्स जैसे रेग्रेसिव टेक्स छापने के लिए राजी कर लिया था।
1.7. हथियार निर्माण : जवाहर लाल ने हथियारों के उत्पादन के लिए एक भी क़ानून नही छापा। उन्होंने रूस एवं ब्रिटेन से हथियार आयात किये।
1.8. राष्ट्रिय संपत्ति : जवाहर लाल ने तकनीक जुटाने वाले कई सारे सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये, जिससे भारत की संपत्ति में इजाफा हुआ। इन तकनिकी उपक्रमों के लिए हमें इंजीनियरिंग समझने वाले छात्रों की जरूरत थी। अत: उन्होंने साइंस-मैथ्स की पुस्तकों के अनुवाद पाठ्यक्रम में शामिल किये। जवाहर लाल के समय भारत की साइंस-मैथ्स का पाठ्यक्रम काफी बेहतर था। 1990 के बाद से इसका सरलीकरण शुरू हुआ।
इस नीति में दोष यह था कि सार्वजनिक उपक्रमों के मंत्री+कार्यकारी अध्यक्ष पर जनता का कोई नियंत्रण नहीं था। न तो ये वोट वापसी के दायरे में थे, और न ही जूरी के दायरे में। अत: इन संस्थाओ में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया था, और इसमें से ज्यादातर उपक्रम घाटा बना रहे थे। बाद में इसी घाटे को बहाना बनाकर बाद के नेताओं ने ये उपक्रम घूस खाकर विदेशियों को बेचने शुरू किये !!

  1. स्वतंत्र पार्टी : 1959 परमिट राज के खिलाफ सी राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की थी। इनका मुख्य वादा परमिट राज ख़त्म करने का था, अत: मझौले और छोटे स्तर के काफी कारोबारी इस पार्टी का सहयोग कर रहे थे। लेकिन जवाहर लाल के स्पोंसर एवं भारत के शीर्ष उद्योगपति इस पार्टी के समर्थन में नहीं थे। कई भू स्वामियों का भी इसे समर्थन था। स्वतंत्रता आन्दोलन के कई नेता, कार्यकर्ता एवं फंडिंग होने के कारण यह पार्टी तेजी से बढ़ रही थी। 1967 की लोकसभा में यह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी।
    1972 में सी राजगोपालाचारी के मरने और फंडिंग न होने की वजह से यह पार्टी बंद हो गयी। चूंकि इस पार्टी ने कभी भी यह ड्राफ्ट सार्वजनिक नहीं किया था कि वे इकॉनोमी को ठीक करने के लिए गेजेट में क्या छापेंगे अत: नेता के मरने एवं पार्टी के बंद होने के बाद इसके कार्यकर्ताओ को कुछ पता नहीं था कि आगे क्या करना है। अत: वे इधर उधर अन्य पार्टियों का समर्थन करने लगे।
  2. सार : जवाहर लाल एवं धनिक वर्ग में काफी मधुर सम्बन्ध थे और उन्होंने लगातार गठजोड़ बनाये रखा। धनिकों से टकराव न लेना सिर्फ और सिर्फ एक मात्र कारण था कि जवाहर लाल पीएम बने और बिना किसी प्रतिरोध के 16 वर्षो तक पीएम बने रहे।
  3. (B) लाल बहादुर शास्त्री : (1964 – 1966 ):
    शास्त्री जी को ज्यादा वक्त नहीं मिला। शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान को शिकस्त दी, किन्तु अमेरिका एवं रूस के दबाव के कारण हमें कब्ज़ा किया हुआ इलाका लौटाना पड़ा। ताशकंद में शास्त्री जी 4 दिन तक रहे। वहां अमेरिकी और रूसी दोनों थे। व्यापक रूप से यह माना जाता है कि शास्त्री जी की हत्या सीआईए ने करवाई थी। अब शास्त्री जी के विकिपीडिया पेज पर बिना किसी पुष्टि के यह बात सीधे तौर पर दर्ज कर दी गयी है कि – शास्त्री जी को KGB द्वारा जहर दे दिया गया था !! ( जो कि एक बकवास बात है )
  4. अब बात करते है इन्दिरा गांधी जी के बारे में
  5. (C) इंदिरा गाँधी जी : ( 1966 -1984 ):
    धनिक वर्ग से टकराव लेने की जो ताकत इंदिरा गांधी ने दिखाई उसके सामने भारत के शेष सभी प्रधानमंत्रियो की हैसियत बच्चों जैसी नजर आती है। उनके और धनिक वर्ग के बीच काफी लम्बा संघर्ष चला। इस दौरान अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने इंदिरा जी को गिराने के उन सभी तरीको का इस्तेमाल किया जिनका इस्तेमाल किया जा सकता था।
    यह बात साफ़ है कि इंदिरा जी जनता के हाथ में ताकत देने में नहीं मानती थी। और इस वजह से उन्होंने पुलिस एवं अदालतों को ठीक करने के लिए कोई क़ानून नहीं छापे। उन्होंने नागरिको का सहयोग लिए बिना दुनिया के सबसे ताकतवर लोगो से लड़ने का फैसला किया। जो कि एक गलती थी।
  6. (1) फैसले जो धनिकों से उनके टकराव की वजह बने :
    1.1. परमाणु बम : 1966 तक भारत का परमाणु अनुसन्धान कार्यक्रम शांतिपूर्ण नाभिकीय ऊर्जा प्राप्त करने की दिशा में काम कर रहा था। शास्त्री जी के समय साराभाई इसके मुखिया थे और उन्हें शास्त्री जी की तरफ से इसे शांति प्रिय दिशा में बनाए रखने के आदेश थे। एक बड़ी वजह यह थी कि इसमें अमेरिका भी हमें सहयोग दे रहा था, और उनकी यह शर्त थी कि भारत अपना परमाणु कार्यक्रम सिर्फ बिजली के उत्पादन तक ही सीमित रखेगा।
    इंदिरा जी ने पीएम बनने के साथ ही 1967 में भारत के परमाणु कार्यक्रम को मिलिट्री प्रोजेक्ट की तरफ मोड़ दिया था। फिर वे इससे भी आगे गयी। उन्होंने अमेरिका से शांतिपूर्ण कार्यो के लिए मांगे गये हेवी वॉटर तकनीक का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने में करने की अनुमति दी। 1969 तक आते आते अमेरिका को इस बारे में सूचना हो चुकी थी कि भारत परमाणु बम बनाने की दिशा में तेजी से काम कर रहा है।
  7. 1.2. RAW : हथियारों के निर्माण की क्षमता जुटाना काफी जोखिम भरा काम है। इसके लिए आपको भीतरी एवं बाहरी दोनों प्रकार के दुश्मनों से निपटना होता है। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए इंदिरा जी ने 1968 में एक फुल टाइम ख़ुफ़िया एजेंसी की स्थापना की। 1969 में इसके बजट को 15 गुणा बढ़ाया गया और जासूसों की संख्या हजारों तक कर दी गयी। इंदिरा जी अपने एजेंटो को पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान में सेट करना शुरू किया। पाकिस्तान को कमजोर करना इंदिरा जी के प्राइम एजेंडे में था।
    रॉ ने 1969 में इंदिरा जी को सूचित कर दिया था कि यदि बांग्लादेश को सहयोग किया जाए तो पाकिस्तान को विभाजित किया जा सकता है। इंदिरा जी ने सेना बढ़ाने पर काम करना शुरु कर दिया था। पाकिस्तान इस समय अमेरिका का काफी घनिष्ठ साथी था, और सीआईए को पता था कि भारत पूर्वी पाकिस्तान में दखल कर रहा है।
    Two yrs before 1971 war, RAW’s RN Kao told Indira Gandhi to be ready for Pakistan partition
  8. 1.3. पाकिस्तान का विभाजन : 1971 में जब पाकिस्तान एवं पूर्वी पाकिस्तान के बीच संघर्ष चल रहा था और पूर्वी पाकिस्तान हारने लगा तो इंदिरा जी ने पाकिस्तान की फौजों पर हमला किया। इस दौरान अमेरिका ने इंदिरा जी से साफ़ कहा था कि वे पाकिस्तान के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करे। किन्तु वे यह मौका गंवाना नहीं चाहती थी।
    तब अमेरिका ने भारत पर हमला करने के लिए अपनी सेना भेजी, लेकिन जब तक उनकी सेनाएं भारत पहुंचती युद्ध ख़त्म हो चुका था। बाद में अमेरिका एवं रूस के हस्तक्षेप के कारण युद्धबंदियों को रिहा किया गया।
    US forces had orders to target Indian Army in 1971 | India News – Times of India
  9. 1.4. पोकरण प्रथम : 1974 में उन्होंने परमाणु धमाका किया। परमाणु धमाके के बाद अमेरिका ने उन्हें फिर से कहा कि अब वे परमाणु अप्रसार संधी साइन करें, किन्तु इंदिरा जी प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके बाद अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने इंदिरा जी गिराने के प्रयास काफी तेज कर दिए थे।

    1.5. मिसाइले, लड़ाकू विमान एवं टैंक : परमाणु हथियारों के अलावा इंदिरा जी ने परम्परागत हथियारों का उत्पादन भी करना शुरू किया।

तेजस : 1970 में इंदिरा जी लड़ाकू विमान बनाने का प्रोजेक्ट शुरू किया
अर्जुन : 1972 में इंदिरा जी ने स्वदेशी टैंक बनाने का प्रोजक्ट शुरु किया।
मिसाईल : कलाम को इसरो से DRDO में इंदिरा जी ही लेकर आयी थी। पृथ्वी से लेकर अग्नि तक के सभी प्रोजेक्ट इंदिरा जी ने बूस्ट किये ।

1.6. पाकिस्तान को तोड़ने की तैयारी : अमेरिकियों के समर्थन से जब जनता पार्टी सत्ता में आई तो मोरारजी देसाई ने रॉ को ठिकाने लगा दिया था। यह बात कॉमन नोलेज में है कि इस्राएल पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम केंद्र को ध्वस्त करने के लिए हमला करने वाला था लेकिन मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को बचाने के लिए पाकिस्तान को यह सूचना दे दी थी।
1980 में सत्ता में वापसी करने के साथ ही इंदिरा जी ने इस अधूरे काम को करने की योजना बनायी। काफी विश्वस्त सूत्र बताते है कि 1981 में इंदिरा जी पाकिस्तान पर हमला करने वाली थी। योजना में पाक अधिकृत कश्मीर को भारत में शामिल करना, पाकिस्तान के परमाणु संयंत्र को ध्वस्त करना, और पाकिस्तान के 3 और टुकड़े करना शामिल था।
Indira Gandhi considered military strike on Pakistan’s nuclear sites: CIA document
हमले की तैयारियों की सूचना अमेरिका को हो चुकी थी, अत: ऑपरेशन स्थगित कर दिया गया। जब अमेरिका ने देखा कि इंदिरा जी पाकिस्तान पर हमला करने के मौके की तलाश में है तो उन्होंने पाकिस्तान को मिसाईल, लड़ाकू विमान आदि की सैन्य मदद बढ़ा दी थी। जब अमेरिका ने पाकिस्तान को हथियार भेजने शुरू किये तो इंदिरा जी को पीछे हटना पड़ा।

1.7. बैंको का राष्ट्रीयकरण : यह बहुत बड़ा फैसला था। बैंको पर किसी देश की पूरी अर्थव्यवस्था टिकी होती है। हथियार कम्पनियों के बाद बैंकिंग कम्पनियां दुनिया की सबसे ताकतवर कम्पनियां है। इस फैसले ने भारत के कई उद्योगपतियों और उनकी फंडिंग पर चलने वाली सभी पार्टियों / सांसदों / नेताओं को इंदिरा जी के खिलाफ कर दिया था।
Bank Nationalisation Day: Find out why these banks were nationalised
इस तरह के क़ानून को गेजेट तक पहुँचाना भी अपने आप में एक चुनौती होती है।
उस समय वित्त मंत्री मोरारजी देसाई थे। जैसा कि आप जानते है यह आदमी खुले आम अमेरिकियों का एजेंट था। जून 1968 में भारत के राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का देहांत हो गया। इंदिरा जी ने इसी समय वी वी गिरी को राष्ट्रपति बनाया। यह राष्ट्रपति का पद खाली न रहे इसके लिए आपातकालीन नियुक्ति थी। मतलब वी वी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति की तरह थे। अब उन्हें इस्तीफा देना था और राष्ट्रपति के लिए नोमिनेशन फाइल करना था।
तो जिस दिन वी वी गिरी ने इस्तीफा देना था उसी रात को इंदिरा जी ने 14 बैंको के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश निकाला और वी वी गिरी से ठप्पा लगवाकर इसे गेजेट में छपवा दिया। और इसके बाद वीवी गिरी ने इस्तीफा दे दिया। और इस पूरे घटनाक्रम के बारे में मोरारजी देसाई को जानकारी भी नहीं दी गयी थी !! मतलब वित्त मंत्री से परामर्श किये बिना ही या आदेश निकाल दिया गया था !!


1980 में फिर इंदिरा जी ने 6 बैंको का राष्ट्रीयकरण और कर दिया। दरअसल, जब पीएम एवं धनिकों में टकराव होता है तो बैंक धनिकों का सबसे मारक अस्त्र होता है। वे बैंको के माध्यम से अर्थव्यवस्था ठप कर देते है, और इसका पूरा इल्जाम पीएम पर आता है। मंदी आ जाती है, रुपया उड़ जाता है, कीमतें आसमान में चली जाती है, और एक बार के लिए पूरी इकॉनोमी रुक कर आम आदमी का जनजीवन अस्त व्यस्त कर देती है। फिर वे पेड मीडिया का इस्तेमाल करके जनता को भड़काते है कि, पीएम ने देश को ठप कर दिया है। जनता पीएम का वास्तव में विरोध करना शुरू करती है, और फिर धनिकों से घूस खाकर या तो सांसद पीएम को निकाल देते है, या पीएम चुनाव हार जाता है !!

1.8. महाराजाओ के प्रिवीपर्स रद्द करना : आजादी के समय भारत में कुछ 565 प्रिन्सले स्टेट्स थे। गोरो ने सत्ता हस्तांतरण में यह शर्त रखी थी कि इस बारे में रियासत फैसला करेगी कि उन्हें भारत/पाकिस्तान में मिलना है या स्वतंत्र रहना है। इससे इन राजाओ की नेगोशिएशन पॉवर बढ़ गयी थी। अत: इन्हें भारत सरकार द्वारा कुछ विशेषधिकार दिए गए थे। इसमें इन्हें पेंशन, प्रोटोकाल, सलामी और महाराजाधिराज आदि की पदवी के प्रावधान थे। बड़ी रियासतों को 10 लाख एवं छोटी को 1 लाख सालाना तक।
राष्ट्रपति आदेश निकालकर इंदिरा जी ने प्रिवीपर्स केंसिल कर दिए, किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट का चीफ जज बदलने के बाद वे 1971 में यह बिल फिर से लायी और संविधान में संशोधन करके इसे लागू कर दिया गया। प्रिवीपर्स केंसिल होने के कारण सभी राजे महाराजे इंदिरा जी के खिलाफ हो गए, और इनमे से कई राजाओ ने अगले चुनावों में कोंग्रेस के खिलाफ चुनाव भी लड़ा। लेकिन इनमें से ज्यादातर बुरी तरह से हारे। 1971 में इंदिरा जी ने स्वतंत्रता सैनानियो को पेंशन शुरू कर दी थी। इस तरह रजवाड़ो की पेंशन बंद करके सैनानियो की पेंशन शुरू की गयी।

1.9. WTO एग्रीमेंट से इंकार : अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों ने इंदिरा जी पर दबाव बनाया कि वे भारत की इकॉनोमी अमेरिकी कम्पनियों के लिए खोलने के लिए WTO एग्रीमेंट साइन करे। तकनिकी रूप से पिछड़े हुए देशो के लिए WTO एग्रीमेंट तबाही लाने का एक कम्प्लीट पैकेज है। एक बार यह समझौता करने के बाद कुछ ही वर्षो में अमेरिकी-ब्रिटिश बहुरष्ट्रीय कम्पनियां फर्स्ट राउंड में अमुक देश की अर्थव्यवथा पर कब्ज़ा करने के बाद सेकेण्ड राउंड में सामरिक नियंत्रण हासिल कर लेती है।

संक्षेप यह है कि यदि आप WTO एग्रीमेंट से इंकार करते हो अल्टीमेटली आपको युद्ध में जाना पड़ेगा। या तो शांति से यह समझौता साइन करो या फिर अमेरिकी सेना से युद्ध लड़ो। इन दोनों में से कोई एक तो आपको लेना ही पड़ता है। बचने का कोई मार्ग नहीं।
तसल्ली करने के लिए आप 1950 से 2020 तक अमेरिकी सेनाओं द्वारा लड़े गए युद्धों की सूची देख लीजिये। जिन देशो ने अमेरिकी कम्पनियों के लिए बाजार नहीं खोले उन देशो पर अमेरिकी सेनाओ ने किसी न किसी बहाने से हमला किया।

1.10. इलेक्ट्रोनिक मीडिया : तब भारत का प्रिंट मीडिया पूरी तरह से अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के कब्जे में था। इंदिरा जी ने इसके समानांतर State Owned मीडिया खड़ा करने के लिए 1967 में दूरदर्शन शुरू किया। किन्तु इसकी तकनीक में आत्मनिर्भरता नहीं होने के कारण यह महंगा था और तेजी से विस्तार नहीं कर पाया। 1974 तक सिर्फ 7 शहरो में इसका प्रसारण होता था और राष्ट्रिय प्रसारण 1982 में जाकर शुरू हुआ। इसी समय अमेरिकी धनिक इंदिरा जी पर दबाव बना रहे थे कि वे इलेक्ट्रोनिक मीडिया में विदेशी निवेश की अनुमति दे, ताकि अमेरिकी कम्पनियां भारत में अपने चेनल खोल सके। इंदिरा जी ने प्रस्ताव ठुकरा दिया।
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1.11. पेटेंट का क़ानून : अमेरिकी फार्मासुटिकल कम्पनियां भारत में दवाईयों पर पेटेंट का क़ानून चाहती थी। इंदिरा जी पर इसके लिए काफी दबाव बनाया गया। जब अंतराष्ट्रीय स्तर पर दबाव काफी बढ़ गया तो इंदिरा जी ने खानापूर्ती करने के लिए प्रोसेस पेटेंट का क़ानून छापा। प्रोसेस पेटेंट के कारण भारत की दवा निर्माता कम्पनियां फार्मूले में सांकेतिक हेर फेर करके कानूनी रूप से वे दवाइयाँ बनाने लगी जिनका पेटेंट अमेरिकी कंपनियों के पास था।
हथियार, तेल एवं बैंक के बाद फार्मासुटिकल कम्पनियां दुनिया की चौथे नंबर की सबसे ताकतवर कम्पनियां है। इसके अलावा इंदिरा जी ने और भी ऐसे कई क़ानून छापे जिनकी वजह से अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों के लिए इंदिरा जी को गिराना प्राथमिक लक्ष्य बन गया था। हाई स्पीड ट्रेनों ( राजधानी एक्सप्रेस का प्रोजेक्ट इंदिरा जी ने शुरू किया था ) का इनफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के कारण भी फ्रेंच एवं ब्रिटिश धनिकों के साथ तनाव बढ़ गया था।

(2) इंदिरा गाँधी Vs अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक वर्ग

इंदिरा गाँधी जी ने अमेरिकी-ब्रिटिश धनिकों से निर्णायक टकराव लेकर सबसे ताकतवर प्रतिद्वंदी को सक्रीय कर दिया था। अगले 15 वर्षो का उनका पूरा कार्यकाल इसी लड़ाई का लेखा जोखा है। इसे विस्तृत रूप से लिखा जाए तो या सैंकड़ो पृष्ठों तक फ़ैल जाएगा। अत: मैंने निचे सम्बंधित कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं का संक्षेप दिया है।

2.1. गेंहू के आयात पर रोक : अनाज की कमी करके जनता को भड़काने के लिए अमेरिका ने भारत को आने वाली गेंहू की सप्लाई को बाधित कर दिया था। भारत को यह गेंहू Public Law-480 के तहत आता था, और अमेरिका इसे बिना किसी वाजिब कारण के रोक नहीं सकती थी। अत: उन्होंने परिवहन प्रक्रिया के झमेले डालकर इसकी सप्लाई तोड़ दी। इससे भारत में गेंहू की कमी हो गयी। Public Law-480 के तहत भारत को ये गेंहू लेने के लिए रूपये में भुगतान करना होता था, डॉलर में नहीं।
इस समय अमेरिका विएतनाम पर बम गिरा रहा था, और इंदिरा जी हनोई पर बमबारी करने की आलोचना की थी। जब इंदिरा जी ने कहा कि, भारत वही कह रहा है जो पोप एवं यूएन महासचिव कह रहे है, तो अमेरिका ने जवाब दिया कि – पोप एवं यूएन को हमारे गेंहू की जरूरत नहीं है !!
यदि अमेरिका हमें गेंहू न देता तो भारत के पास अन्य जगहों से खरीदने के लिए पास डॉलर नहीं थे। अत: भारत को दबना पड़ा –
पाकिस्तान को भी गेंहू अमेरिका ही देता था, और जब शिपयार्ड से गेंहू ऊँट गाड़ियों पर लादकर ले जाया जाता था, ऊँटो के गले में तख्तियां लटकायी जाती थी। तख्तियों पर लिखा होता था – Thank you America !!

2.2. राष्ट्रपति चुनाव : बैंको का राष्ट्रीयकरण करने के कारण कोंग्रेस के ज्यादातर नेता इंदिरा जी के खिलाफ हो गए थे। इंदिरा जी ने राष्ट्रपति के लिए फिर से वीवी गिरी का नाम रखा किन्तु कोंग्रेस के नेता वीवी गिरी के खिलाफ थे। कोंग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी के लिए अपना प्रस्ताव पास किया। यदि राष्ट्रपति हाथ से निकल जाता तो कोंग्रेस के नेता कोई न कोई झमेला खड़ा करके इंदिरा जी को हटा सकते थे। अत: इंदिरा जी ने वीवी गिरी को निर्दलीय खड़ा कर दिया। राष्ट्रपति चुनाव में वीवी गिरी निर्दलीय के रूप में जीत गए और कोंग्रेस का उम्मीदवार हार गया !!
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2.3. कोंग्रेस पार्टी से निष्कासन : इसके बाद कोंग्रेस वर्किंग कमेटी ने बहुमत से प्रस्ताव लेकर उन्हें पार्टी से निकाल दिया। इंदिरा ने अब कोंग्रेस-R नाम से अपनी नयी पार्टी बनायी। इस समय तक कोंग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह दो बैलो की जोड़ी होता था।
इंदिरा जी ने इस सिम्बल पर दावा किया, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा दावा ख़ारिज कर दिया गया। तब उन्होंने नया सिम्बल चुना। गाय एवं बछड़ा।
कोंग्रेस पार्टी को अमेरिकी-ब्रिटिश एवं शीर्ष भारतीय उद्योगपतियों का सपोर्ट था। मतलब उनके पास प्रचार के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा पैसा था और सबसे महत्त्वपूर्ण उनके पास पेड मीडिया था। पेड मीडिया में इंदिरा जी के बारे में नकारात्मक रिपोर्टिंग की जा रही थी। भारतीय उद्योगपतियों में से एक लॉबी इस समय इंदिरा जी का भी सपोर्ट कर रही थी। और उन्होंने ही कोंग्रेस-R के लिए फंड जुटाया।
1971 के चुनावों में इंदिरा जी की पार्टी ने 352 सीट जीती और वे फिर से प्रधानमंत्री बन गयी।
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2.4. धनिकों द्वारा भ्रष्ट जजों का इस्तेमाल :
राजनारायण ने रायबरेली से इंदिरा जी सामने चुनाव लड़ा था और वे चुनाव हार गए थे। राजनारायण ने चुनाव आयोग एवं हाई कोर्ट में अर्जी दी कि इंदिरा गांधी ने रायबरेली में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया है, शराब-पैसा बाँट कर वोट लिए है, और चुनाव में 35,000 रू से ज्यादा खर्च करके चुनाव आचार संहिता का उलंघन किया है !!
मतलब आरोप देखकर ही आपको समझ आ रहा होगा कि एकदम फर्जी केस है। फर्जी इस हिसाब से कि सभी चुनावों में ऐसा होता है, और इस तरह की शिकायतें जज लेता ही नहीं है। पर जगमोहन सिन्हा ने केस ले भी लिया, उनका इलेक्शन केंसिल भी कर दिया, और इंदिरा जी को दोषी ठहराकर उन्हें 6 साल तक कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी !!
तकनिकी रूप से मामला इतना था कि इंदिरा जी के मुख्य सचिव यशपाल कपूर ने 11 जनवरी को इस्तीफा दिया और वे इंदिरा जी का चुनावी काम काज देखने लगे। वे इंदिरा जी के इलेक्शन एजेंट थे। इलेक्शन एजेंट को यह पॉवर होती है कि वह उम्मीदवार का नामांकन वापिस ले सकता है। मतलब इलेक्शन एजेंट काफी वफादार आदमी होना चाहिए, और यह उसी संसदीय सीट का मतदाता भी होना चाहिए जहाँ से आपने नामांकन किया है।
इंदिरा जी को यशपाल पर भरोसा था, अत: उन्होंने उनसे इस्तीफा देकर इलेक्शन एजेंट बनने को कहा। यशपाल ने इस्तीफा तो 11 जनवरी को ही भेज दिया था लेकिन इसे 23 जनवरी को स्वीकार किया गया। चूंकि इस्तीफा स्वीकार नहीं हुआ था, अत: माना गया कि आचार संहिता का उलंघन हुआ है। इंदिरा जी का केस ननी पालकीवाला एवं राजनारायण का केस शांति भूषण ने लड़ा था। जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो शांति भूषण मंत्री बने और ननी भाई को अमेरिका में राजदूत बनाया गया !!

2.5. विपक्षी दलों द्वारा सड़को विरोध प्रदर्शन : इंदिरा जी अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट गयी। किन्तु इस्तीफे की मांग को लेकर पूरा विपक्ष सड़को पर उतर आया। जय प्रकाश नारायण जो रैलियां कर रहे थे उनमे वे पुलिस एवं सेना को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि यदि पीएम उन्हें कोई गलत आदेश देता है तो वे मानने से इनकार कर दे। और पेड मीडिया इसे सकारत्मक ढंग से रिपोर्ट करने लगा। मतलब ये सभी लोगो को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देगा। इनके हिसाब से इंदिरा जी इस्तीफा दे देना चाहिए !!
अब यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि, यदि कोर्ट रायबरेली सीट पर चुनाव केंसल कर देता तो वहां फिर से चुनाव होते और इंदिरा जी फिर जीत जाती। और यदि सिन्हा उन पर चुनाव लड़ने से रोक लगाता तो वे राज्यसभा से मनोनीत होकर पीएम बन जाती !! किन्तु उन्हें कोई गुंजाइश नहीं रखनी थी। अत: सिन्हा ने उन पर किसी भी प्रकार के निर्वाचित पद को धारण करने पर रोक लगा दी। मतलब न तो वे विधायक बन सकती थी, न सांसद रह सकती थी और न ही पीएम बन सकती थी !!
इस बात पर ध्यान दें कि इस समय तक इंदिरा जी ने ऐसा कोई फैसला नहीं किया था जिससे अलोकतांत्रिक या बदतर कहा जा सके। बेरोजगारी के मुद्दे पर जब 1974 में जेपी ने मूवमेंट शुरू की तो इंदिरा जी ने उनसे सार्वजनिक रूप से कहा था कि 1976 में चुनाव है, और चुनावों में जनता इसका फैसला कर देगी। अत: आप चुनावों में आइये। सड़के जाम करके क्या मिलने वाला है।
दूसरी बात जेपी ने कभी भी पीएम के सामने अपनी मांग का ड्राफ्ट नहीं रखा। मतलब उन्होंने कभी नहीं बताया कि स्पष्ट रूप से उनकी मांग क्या है, और वे गेजेट में क्या छपवाना चाहते है। उनको बस क्रांति करनी थी। लेकिन क्रांति करने के बाद क्या करना है इसका फोर्मेट उन्होंने कभी सामने नहीं रखा।
मतलब, जब जेपी ने दिल्ली में “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”, और “सम्पूर्ण क्रांति” के नारे लगाकर लोगो को इकट्ठा करना शुरू किया तो उनके पास कोई मांग नहीं थी। एक निर्वाचित नेता जो एक नयी पार्टी बनाकर नए चुनाव चिन्ह पर 352 सीटो का मेंडेट लेकर आया है, उसे कहा जा रहा है कि तुम इस्तीफा दे दो !! क्यों ? क्योंकि इलाहाबाद के हाई कोर्ट जज ने कहा है !! तो इस तरह जज पीएम एवं जनता से ऊपर हो जाते है। और इसीलिए उन्हें जज अपने कंट्रोल में चाहिए

दुसरे शब्दों में वे अपने समय के सबसे ताकतवर गठजोड़ अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक + देशी धनिक + रजवाड़े + चुनाव आयोग + न्यायपालिका + पेड मीडिया + सभी पेड बुद्धिजीवीयों के चौतरफा संयुक्त प्रयासों से पूरी तरह घिर गयी थी। पीएम के पास इस तरह के दबाव समूहों से लड़ने के लिए एक वाजिब रास्ता यह होता है कि वह जन समर्थन दिखाने के लिए चुनावों में जाता है। किन्तु हाई कोर्ट जज ने चुनावों का रास्ता भी उनके लिए बंद कर दिया था।
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2.6. इमरजेंसी का फैसला : 25 जून 1975 को जेपी के नेतृत्व में पूरे देश से नेता दिल्ली में इकट्ठे हुए और विशाल पड़ाव डाला गया। यहाँ से ये झुण्ड पीएम के आवास का घेराव करने के लिए जाने वाला था। अब ये 2 लाख लोग पीएम के आवास को घेर लेते तो समस्या खड़ी हो जाती। और यहाँ से जेपी पुलिस एवं सेना को भी संबोधित कर रहे थे पीएम के आदेश न मानो। मतलब, एक बड़े बलवे का सामान तैयार हो रहा था। जेपी पूरी तरह से अड़ चुके थे कि इंदिरा जी के इस्तीफे बिना वे टलने वाले नहीं है !!
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अमेरिकी-ब्रिटिश धनिको की योजना थी कि, पहले इंदिरा जी को चुनावों में दोषी करार दिया जाए और देश व्यापी प्रदर्शन किये जाए। और जब यह माहौल बन जाये कि पीएम जबरदस्ती सत्ता पर कब्ज़ा किये बैठा है तो सेना को एप्रोच किया जाए। इंदिरा जी को यह संदेह होने लगा कि अब यदि अमेरिकी-ब्रिटिश धनिक सेना को एप्रोच करते है तो सेना टेक ओवर करने के लिए आगे आ सकती है। अमेरिका स्थापित पीएम को गिराने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल करता है।
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अब उनके पास सिर्फ 3 रास्ते थे
या तो वे राजनीती से बाहर हो जाए !!
या वे जूरी कोर्ट गेजेट में छापे
या फिर वे पूरा कंट्रोल लेने के लिए इमरजेंसी लगाये
इस स्थिति से निपटने का सबसे बेहतर तरीका था कि वे जूरी कोर्ट क़ानून गेजेट में छाप देती। जूरी हाई कोर्ट जज के फैसले को खारिज कर देती और मामला ख़त्म हो जाता। किन्तु इंदिरा जी जनता को ताकत देने में नहीं मानती थी, अत: उन्होंने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। तो बस आप आपके पास सिर्फ एक ही रास्ता बचता है – इमरजेंसी !!

उन्होंने इमरजेंसी का विकल्प चुना !!
भारत में आपको बुद्धिजीवियों की ऐसी जमात मिलेगी जो आपको यह समझायेंगे कि इमरजेंसी लगाकर इंदिरा जी ने लोकतंत्र का गला घोट दिया था, जनतंत्र की हत्या कर दी थी, संविधान की धज्जियाँ उड़ा दी थी आदि आदि। लेकिन तकनिकी रूप से यह बिलकुल तर्क है। देखिये, भारत के संविधान में लिखा है कि पीएम किसी भी समय आपातकाल घोषित कर सकता है। तो कोई आदमी जब फुल मेजोरिटी के साथ चुनकर आता है, तो उसे भारत का संविधान कतिपय स्थिति में आपातकाल लगाने का पूरा अधिकार देता है।
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संविधान एवं लोकतंत्र की हत्या तब होती है जब आप वो फैसला लेते हो जिसकी इजाजत संविधान नहीं देता है !! आप पहले संविधान में से आपातकाल का प्रोविजन निकालिए और फिर उसके बाद यदि पीएम आपातकाल लगाता है तो यह संविधान की हत्या होगी।
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2.7. आपातकाल (1975 – 1977 )
इंदिरा गांधी जी ने 17 साल शासन किया था, किन्तु पेड मीडिया ( किताबें+फ़िल्में+अख़बार+टीवी+वृत्त चित्र+ज्ञान बांटने वाले पेशेवर+पेड बुद्धिजीवी+राजनैतिक दल+नेता) इंदिरा जी के टॉपिक को सिर्फ 2 बिन्दुओ के इर्द गिर्द रखता है – आपातकाल एवं ऑपरेशन ब्लू स्टार !!
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इन 2 बिन्दुओ पर उन्होंने टनों कागज लिखकर बाजार में फेंक रखे है। अत: मैं इसकी डिटेल में नहीं जाऊँगा। मेरे विचार में उन्हें आपातकाल लगाने की जरूरत नहीं थी, और यह एक गलत फैसला था। किन्तु यदि उन्हें जूरी कोर्ट नहीं लाना था तो फिर आपातकाल लगाने के सिवाय कोई मार्ग भी नहीं था।
आपातकाल पर मेरे दृष्टिकोण से कुछ उल्लेखनीय बिंदु निचे दिए है।
इंदिरा जी के खिलाफ प्रदर्शन 1974 में शुरू हुए। मुद्दा बेरोजगारी का था। इस तरह के प्रदर्शन निरंतर होते रहते है, कोई फर्क नहीं पड़ता। किन्तु पेड मीडिया के प्रयोजको ने इसे पूरे देश में उठाना और फैलाना शुरू किया। बावजूद इसके इन प्रदर्शनों का पैमाना बहुत छोटा था। तथ्य यह है कि पूरा विपक्ष साथ आने के बावजूद यह मूवमेंट पिक नहीं हुयी थी। खुद दिल्ली में यह दशा थी कि 25 जून की जेपी की रैली में 2 लाख लोग थे, और इनमे से 1 लाख को अन्य राज्यों से लाया गया था !!
इस समय तक जितने भी बड़े नेता इसे लीड कर रहे थे वे उन सभी का एक मात्र लक्ष्य इंदिरा जी कैसे भी करके गिराना था। और इन सभी शीर्ष नेताओ को रैलियों के पैसा एवं पेड मीडिया द्वारा कवरेज दिया जा रहा था। हाशिये पर पड़े इन नेताओं को जब सपोर्ट आने लगा तो ये लोगो को सड़को पर धकेलने लगे। इनमे इस आशा का संचार हो गया था कि इंदिरा जी को गिराया जा सकता है।

हालत यह थी कि इनकी रैलियों में अगर 5,000-10,000 लोग भी होते थे तो पेड मीडिया में यह पहले पन्ने पर फोटो के साथ रिपोर्ट किया जाता था। मतलब जिन नेताओं की फोटो साल में एक बार तीसरे पन्ने पर छप जाती थी, अब उनकी फोटो राष्ट्रिय समाचार पत्रों में पहले पेज पर छप रहे थे !! उस समय के सभी मझौले स्तर के नेताओं के लिए यह एक अवसर था, जो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार दिला रहा था।
जनता में इंदिरा जी के खिलाफ जो गुस्सा बना उसकी वजह इमरजेंसी के दौरान किया गया दमन था। इमरजेंसी लगाने से पहले तक देश भर में इंदिरा जी के खिलाफ जनता में कोई वास्तविक गुस्सा नहीं था। मतलब गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई आदि की समस्याएं थी, इससे इनकार नहीं है।

किन्तु समस्याएं होना और उनके आधार पर इस तरह की मूवमेंट खड़ी कर देना 2 बिलकुल अलग तरह की बातें है। जब तक आम इंसान का जन जीवन एकदम से ठप्प न हो जाए या उसे आसन्न रूप से निजी नुकसान न हो तब तक जनता को सड़कों पर नहीं धकेला जा सकता। इसके लिए काफी पम्पिंग देनी पड़ती है। समस्याएं तो हर समय रहती है, किन्तु मूवमेंट सिर्फ तब खड़ी होती है, जब पम्प देने वाले स्पोंसर्स निवेश करने को तैयार हो।
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सार रूप में, यह उस तरह की बात है जैसी आपने पंचतंत्र के द्वितीय तंत्र ( मित्र सम्प्राप्ति ) में “सन्यासी एवं चूहा” प्रकरण में पढ़ी होगी। यदि आपने वह कहानी नहीं पढ़ी है तो पुस्तक महल का प्रिंट वर्जन खरीद कर पढ़ सकते है। क्योंकि इंटरनेट पर जो कथाएँ उपलब्ध है उनमें से ज्यादातर का इतना रूपांतरण कर दिया गया है कि, मूल कथ्य की ऐसी तैसी हो चुकी है।
कथा कहती है कि –
लघुपतनक नामक चूहा ताम्रचूड़ द्वारा एकत्र की गयी भिक्षा को अपना आहार बना लेता था। ताम्रचूड़ भिक्षापात्र को काफी ऊंचाई पर टांगना शुरू करता है, किन्तु लघुपतनक छलांग लगाकर भिक्षापात्र तक पहुँच ही जाता है। जब ताम्रचूड़ का मित्र बृहत्सिफक चूहे को इतनी ऊँची छलांग लगाते देखता है तो शंका प्रकट करता है कि – चूहे इतनी ऊँची छलांग नहीं लगाते। चूहे के इस पराक्रम की वजह क्या है ? हो सकता है इस चूहे का बिल किसी खजाने के ऊपर हो, और धन की गर्मी के कारण ही चूहा इतनी लम्बी छलांग लगा पा रहा है। वे चूहे का बिल खोदकर खजाना निकाल देते है। और खजाना निकलने के बाद लघुपतनक ऊँची छलांग नहीं लगा पाता !!
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तो बेरोजगारी का मुद्दा क्या है !! ये मुद्दा तो 1947 से ही जस का तस बना हुआ है। आज भी ये मुद्दा चालू है। पर अभी इस मुद्दे पर फंडिंग नहीं हो रही है तो किनारे पड़ा है। अगर इस मुद्दे की रिपोर्टिंग पर निवेश होने लगे तो 6 महीने में मोदी साहेब की सरकार अस्थिर हो जाएगी, और देश ठप हो जाएगा। मार्केट में मुद्दों और चूहों की कभी कोई कमी नहीं रहती। कमी हमेशा धन की होती है। जैसे ही धन+मीडिया कवरेज आने लगता है, मुद्दे उठने लगते है। किन्तु जनता का ध्यान इस बात पर जाता है कि हाँ बेरोजगारी तो है !! पर वे इस बात पर ध्यान नहीं देते कि बेरोजगारी फैक्ट है, किन्तु नयी बात यह है कि इस मुद्दे को उठाने पर अब निवेश किया जा रहा है।
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2.7.1.आपातकाल में SS की भूमिका : इंदिरा जी को गिराने के लिए पेड मीडिया, नेता, जज वगेरह को एलाइन करना और उनके बीच तालमेल बनाने में SS ने काफी अच्छा काम किया था। ये आदमी हावर्ड में अर्थशास्त्र पढ़ाता था। 1970 में पेड अमर्त्य सेन* ने इसे दिल्ली यूनवर्सिटी में प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्ति दी। अमर्त्य सेन एवं SS का मानना था कि भारत को अमेरिका के लिए अपना बाजार खोल देना चाहिए । जब इन दोनों के काफी आर्टिकल पेड मीडिया में आने लगे तो इंदिरा जी ने SS को यूनिवर्सिटी से निकाल दिया। 1974 में इसे जनसंघ पार्टी द्वारा सीधे राज्य सभा के लिए नोमिनेट करके संसद भेज दिया गया।
अब आप लोग खुद ही अनुमान लगा लीजिए की क्या सही है क्या गलत

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