गहलोत, पायलट या कोई और…: 2023 का लीडर कौन ? नाम तय कर अपनी यात्रा से ‘राजस्थान को जोड़’ जाएं राहुल ऐसे समय में जब देश का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रंग तेजी से बदल रहा है तब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के क्या कोई मायने हैं? क्योंकि मैं राजनीति का मौसम विज्ञानी नहीं हूं इसलिए इस सवाल का विश्लेषण भविष्वाणी के तौर पर पूरी जिम्मेदारी से नहीं कर सकता। लेकिन यह जरूर जानता हूं कि कई बार खुद को खोजने और एक शक्तिशाली व्यवस्था से टकराने के लिए एक अजीब पागलपन की जरूरत होती है।

यात्रा का जो विकल्प राहुल ने चुना है वह मुश्किल है, छवि बदलने की प्रक्रिया है, निरंतर विफलता के बीच भविष्य की तलाश है लेकिन इतिहास और तजुर्बे यही बताते हैं कि यात्राओं की ताकत से कुछ भी उलटफेर हो सकता है। बस जुनून और दृष्टिकोण साफ होना चाहिए। राहुल गांधी की यात्रा के बढ़ते कदम अब राजस्थान में हैं, जहां उन्हीं की सरकार है। राजस्थान में पार्टी के भीतर मतभेद – मनभेद, सियासी नृत्य प्रतियोगिताओं की बातें आगे करेंगे। किंतु यह जानना जरूरी है कि राहुल के राजस्थान रहते गुजरात, हिमाचल व एमसीडी के चुनावी नतीजे आ चुके हैं। गुजरात व दिल्ली से बहुत बुरी खबर है। जबकि हिमाचल में पार्टी की उपस्थिति ताकतवर हुई है। यात्रा के दौरान राहुल लगातार जनता से मिल रहे हैं, बात कर रहे हैं। लेकिन क्या वे ये सवाल पूछ रहे हैं कि मतदाता कांग्रेस को पूरी तरह शासन चलाने की अनुमति देने को क्यों तैयार नहीं है?
या आत्मविश्लेषण यह भी हो रहा है कि कांग्रेस क्यों सियासी प्रबंधन कौशल भूल गई है? भीषण सियासी संकट से गुजर रही कांग्रेस के लिए राहुल की यात्रा के कुछ कदम क्या सियासी सच की गहराइयों में उतरकर वास्तविकता स्वीकारने की ओर बढ़े हैं? यात्रा की रफ्तार अगर जनवादी मुद्दों को दिखावटी चश्मे से देखेगी तो बेचैनी न कार्यकर्ताओं में पैदा होगी ना मतदाताओं में। यात्रा का विजन पार्टी के भीतर आक्रोश को झांकने – आंकने का नहीं है तो मानकर चलिए कि राहुल इतना चलकर भी कहीं नहीं पहुंचेंगे। राहुल गांधी जिस तटस्थ, ठंडी और उदासीन आंखों से राजस्थान को देखते हैं, वह भी खतरनाक है। आपसी असहमति सियासत का अहम हिस्सा है लेकिन राजस्थान में दांव-पेच पार्टी के लिए आत्मघाती हो गए हैं। राजस्थान कांग्रेस सकल घरेलू कड़वाहट के जिस दौर से गुजर रही है वह सियासी साजिश – खुराफातों का चरम है। नतीजा कांग्रेस का सबसे सुरक्षित राज्य असुरक्षित हो रहा है। व्यवस्था-विकास तंत्र भ्रमित है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के सियासी गैंगवार ने पार्टी की साख पर बट्टा लगा दिया है। राहुल को अब ये सब नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
राहुल को राजस्थान से निकलते-निकलते यह फैसला लेना चाहिए कि यहां मुखिया कौन होगा? मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही हैं तो यह उलझन दूर होनी चाहिए। अगर सचिन पायलट हैं तो यह भी स्पष्ट हो । अनिश्चय की भूलभुलैया खत्म हो। दिसंबर 2023 में चुनाव हैं। जल्द फैसला लेंगे, बताएंगे, इंतजार करें जैसे जुमले अब नहीं चलेंगे। राजस्थान के धोरों से निकलते हुए यदि राहुल यहां की सियासी अस्थिरता दूर कर देते हैं तो कहा जाएगा राजस्थान में यात्रा शानदार रही। प्रश्न सिर्फ राजस्थान का नहीं है। यात्रा के बाद राहुल को भी यह तय करना होगा कि वे जयप्रकाश नारायण ना चाहते हैं या जवाहर लाल नेहरू । राहुल सोचते हैं कि पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी न लेकर वे दार्शनिक तर्कों और बड़े मुद्दों को उठाकर कांग्रेस को ताकत दे देंगे। ठीक है, लेकिन उन्हें समझना होगा कि क्या अध्यक्ष के तौर पर खड़गे इतने दिग्गज हैं कि पार्टी की शक्ल बदल देंगे? भाजपा-कांग्रेस दोनों में यात्राओं का इतिहास मौजूद है।

दोनों ने जमकर देश की पगडंडियां छानी हैं। पर तब, जब उनके पास कुछ नेता यात्रा करने और बाकी पार्टी संभालने के लिए मौजूद थे। सबसे महत्वपूर्ण इन यात्राओं के मूल में काल्पनिक सपने नहीं थे। उस वक्त की वास्तविकताएं थीं, नेतृत्व था, नेता थे। क्या आज राहुल के पास यह सबकुछ है? एक बात और यात्राओं से आप जो चाहते हैं, सबकुछ पा सकते हैं लेकिन लहरवाद और करिश्मों के दौर में दिल से नहीं दूरदर्शिता से रास्ते चुनकर उनपर चलना पड़ेगा। राहुल के चेहरे पर वैराग्य के संकेत दिख रहे हैं। लंबी दाढ़ी, चमकती आंखें और रोज मीलों चलने की ऊर्जा । लेकिन वे जब दिल्ली लौटेंगे तब क्या होगा? इस कठिन सवाल का जवाब कांग्रेस को खोजना होगा।