भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता क्या है? (What is Indian constitution and secularism) 1 :-

697

विश्व के अधिकतर देशों का अपना संविधान है लोकतांत्रिक देशों में संविधान का विशेष महत्व होता है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि जिन देशों के पास अपना संविधान होता है वे सभी लोग लोकतांत्रिक देश ही होंगे। संविधान कई और उद्देश्यों की पूर्ति करता है। पहला यह दस्तावेज उन आदर्शों को सूत्र बंद करता है जिनके आधार पर नागरिक अपने देश को अपनी इच्छा और अपने सपनों के अनुसार रच सकते हैं।

संविधान नहीं बताता कि हमारे समाज का मूलभूत स्वरूप क्या हो? संविधान नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिसको एक देश के सभी लोग अपने देश को चलाने की पद्धति के रूप में अपना सकते हैं।संविधान का दूसरा मुख्य उद्देश्य देश की राजनीतिक व्यवस्था को तय करना है कि लोकतंत्र में हम अपने नेता संघ चुनते हैं।

भारतीय संविधान क्या है

इन नेताओं से यह आशा की जाती है कि वह सत्ता का दुरुपयोग ना करें। फिर भी इस बात की संभावना हमेशा रहती है कि यह नेता सत्ता का दुरुपयोग कर सकते हैं।लोकतांत्रिक समाज में प्रायः संविधान ही ऐसे नियम तय करता है, जिनके द्वारा राजनेताओं के हाथों सत्ता के इस दुरुपयोग को रोका जा सकता है।

इसे भी पढ़ें :-

ग्लोबल वार्मिंग के क्या कारण है?

भारतीय संविधान (Indian Constitution) :-

स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राष्ट्रवादियो ने इस बात पर काफी विचार किया था कि स्वतंत्र भारत का स्वरूप कैसा होना चाहिए? औपनिवेशिक राज्य के लंबे अत्याचारी शासन ने भारतीयों के सामने इतना अवश्य स्पष्ट कर दिया था कि स्वतंत्र भारत को एक लोकतांत्रिक देश होना चाहिए। उसमें प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार हो, सभी को सरकार में हिस्सेदारी का अधिकार हो।

सन 1946 में एक संविधान सभा गठित की गई।संविधान सभा के सदस्यों के सामने अनेक चुनौतियां थी। क्योंकि देश में कई समुदाय थे, अनेक भाषाएं, अनेक धर्म और अनेक संस्कृति थी। जब संविधान लिखा जा रहा था तो उस समय देश भारी उथल-पुथल से गुजर रहा था। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा लगभग तय हो चुका था। जनता की सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधारों के द्वारा गरीबी उन्मूलन और जनप्रतिनिधियों के चयन में जनता की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया गया।

यूक्रेन हमले में कितनी कीमत चुकाएगा रूस :-व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेनी राष्ट्रपति को दी धमकी, बोले- पश्चिमी देशों से हाथ मिलाया तो खत्म हो जाएगा कीव1 :-

बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर को भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है। डॉक्टर अंबेडकर का विश्वास था कि संविधान सभा में उनकी हिस्सेदारी से अनुसूचित जातियों को संविधान के प्रारूप में कुछ सुरक्षात्मक व्यवस्था मिली है।

लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि भले ही कानून बन गए हो, अभी भी अनुसूचित जातियां बेफिक्र नहीं हो सकती क्योंकि इन कानूनों का संचालन सवर्ण हिंदू अधिकारों के हाथों में ही है। इसलिए उन्होंने अनुसूचित जातियों को आवाहन किया कि वे सरकार के अलावा लोक सेवाओं में भी बढ़-चढ़कर शामिल हो।भारतीय संविधान के प्रमुख विशेषताएं –

1. संघवाद :-

इसका तात्पर्य देश में एक से अधिक सरकारों का होना है। भारत में केंद्र सरकार के अतिरिक्त राज्य अस्तर पर भी सरकार है। पंचायती राज व्यवस्था शासन का तीसरा स्तर है। भारत के सभी राज्यों को कुछ मुद्दों पर निर्णय लेने का स्वायत्त अधिकार है। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सभी राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को मारना पड़ता है। संघवाद के अंतर्गत राज्य केवल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि ही नहीं होते वरण उन्हें संविधान से ही अपनी शक्ति और अधिकार मिलते हैं।

2. संसदीय शासन प्रणाली :-

सरकार के सभी स्तरों पर प्रतिनिधियों का चुनाव लोग स्वयं करते हैं भारत का संविधान अपने सभी वयस्क नागरिकों को वोट डालने का अधिकार देता है। भारतीय संविधान में सार्वभौमिक मताधिकार की व्यवस्था है। इसका तात्पर्य है कि अपने प्रतिनिधि के चुनाव में देश के सभी लोगों की सीधी भूमिका होती है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं चुनाव भी लड़ सकता है, चाहे उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि कैसे भी क्यों ना हो।

यूक्रेन हमले में कितनी कीमत चुकाएगा रूस :-

3. शक्तियों का बंटवारा :-

संविधान के अनुसार राज्य के तीन अंग है- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।विधायिका में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। कार्यपालिका ऐसे लोगों का समूह है जो कानून को लागू करने और शासन को चलाने का काम देखते हैं। न्यायालयों की व्यवस्था को न्यायपालिका कहते हैं। राज्य के किसी भी शाखा द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रावधान किया गया है कि इन सभी अंगों की शक्तियां एक दूसरे से अलग होगी।

शक्तियों के इस बंटवारे के आधार पर प्रत्येक अंग दूसरे अंग पर अंकुश रखता है और इस प्रकार तीनों अंगों के बीच सत्ता का संतुलन बना रहता है।

4. मौलिक अधिकार :-

देश के प्रत्येक नागरिक के लिए मौलिक अधिकार विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह अधिकार देश के सभी नागरिकों को राज्य की सत्ता के दुरुपयोग से बचाते हैं।

(a) समानता का अधिकार :-

कानून की दृष्टि में सभी लोग समान है। इस अधिकार में यह भी वर्णित है कि धर्म, जातीय लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। सार्वजनिक स्थानों पर सभी का बराबर अधिकार होगा। रोजगार के मामले में राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं कर सकता।

(b) स्वतंत्रता का अधिकार :-

इस अधिकार के अंतर्गत अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता, देश के किसी भी भाग में आने जाने, रहने तथा को भी व्यवसाय, पैसा या कारोबार करने की स्वतंत्रता के अधिकार शामिल है।

(c) शोषण के विरुद्ध अधिकार :-

मानव व्यापार, जबरन श्रम और 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को मजदूरी पर रखना अपराध है।

(d) सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार :-

धार्मिक या भाषीय सभी अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए अपने अपने शैक्षणिक संस्थान खोल सकते हैं।

(e) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार :-

सभी नागरिकों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा अनुसार धर्म अपनाने, उसका प्रचार प्रसार करने का अधिकार है।

भारतीय संविधान

(f) संवैधानिक उपचार का अधिकार :-

यदि किसी नागरिक को लगता है कि राज्य द्वारा किसी मौलिक अधिकार का हनन हुआ है तो इस अधिकार का सहारा लेकर बने आलम में जा सकता है। मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त हमारे संविधान में अखंड नीति निर्देशक सिद्धांतों का भी है। संविधान भैया खंड इसलिए जोड़ा गया था ताकि और अधिक सामाजिक व आर्थिक सुधार लाए जा सकें। वे चाहते थे की स्वतंत्र भारतीय जनता की गरीबी दूर करने वाले कानून और नीतियां बनाते हुए सिद्धांतों को मार्गदर्शक के रुप में हमेशा अपने सामने रखें।

भारत में आदर्श चुनाव आचार संहिता क्या होती है?

धर्मनिरपेक्षता की समझ (understanding of secularism):-

इतिहास में हमें धर्म के आधार पर भेदभाव और और अत्याचार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों पर अमानवीय अत्याचार किए। वहां कई लाख लोगों को केवल धर्म के आधार पर मार दिया गया था लेकिन अब यहूदी धर्म मानने वाले इजराइल में भी मुसलमान और ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ मानवीय व्यवहार किया जा रहा है।

सऊदी अरब में गैर मुसलमानों को मंदिर या गिरजाघर बनाने की छूट नहीं है, नहीं इन धर्मों के लोग वहां पूजा-अर्चना के लिए किसी सार्वजनिक स्थल पर एकत्र हो सकते हैं। इन सभी उदाहरणों में एक धर्म के लोग अन्य धार्मिक समुदायों के लोगों के साथ याद तो भेदभाव कर रहे हैं या उनका उत्पीड़न कर रहे हैं। भेदभाव की घटनाएं तब और अधिक बढ़ जाती हैं जब दूसरे धर्म के स्थान पर राज्य किसी एक धर्म को अधिकृत मान्यता प्रदान करता है।

भारत के गिनीज बुक ऑफ़ विश्व रिकॉर्ड : पूरा पढ़िए

धर्मनिरपेक्षता क्या है :-

भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को अपने धार्मिक विश्वासों और तौर तरीकों को अपनाने की छूट दी गई है। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। इस विचार को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में धर्म और राज्य की शक्ति को एक दूसरे से अलग रखने की रणनीति अपनाई है। धर्म को राज्य से अलग रखने की इसी अवधारणा को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है।

धर्म को राज्य से अलग रखना महत्वपूर्ण क्यों है?एक लोकतांत्रिक देश में धर्म को राज्य से अलग रखना बहुत आवश्यक है। विश्व के सभी देशों में एक से अधिक धर्मों के लोग साथ-साथ रहते हैं। अतहर देश में किसी एक धर्म के लोगों की संख्या अधिक होगी तथा अन्य धर्मों के लोगों की संख्या कम होगी। यदि बहुमत वाले धर्म के लोग राज्य सत्ता में पहुंच जाते हैं तो उनका समूह अन्य धर्मों के साथ भेदभाव करने और उन्हें परेशान करने के लिए सत्ता और राज्य के आर्थिक संसाधनों का प्रयोग कर सकता है।

बहुमत की इस निरंकुशता के कारण धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो सकता है।धर्म के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव इन अधिकारों का उल्लंघन है जो एक लोकतांत्रिक समाज अपनी सभी नागरिकों को प्रदान करता है। अतः बहुमत की निरंकुशता और उसके कारण मौलिक अधिकारों का हनन, वह अहम कारण है जिसके चलते लोकतांत्रिक समाजों में राज्य और धर्म को अलग अलग रखना इतना महत्वपूर्ण माना जाता है।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता क्या है (what is Indian secularism) :-

भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारतीय राज्य धर्मनिरपेक्ष रहेगा। हमारे संविधान के अनुसार केवल धर्म निरपेक्ष राज्य ही अपने उद्देश्यों को साकार करते हुए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रख सकता है।

1. कोई भी धार्मिक समुदाय किसी दूसरे धार्मिक समुदाय को न दबाएं।

2. अपने ही धर्म के अन्य सदस्यों को ना दबाएं।

3. राज्य मैं तो किसी विशेष धर्म को तो पड़ेगा और ना ही लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता छीनेगा।

इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए राज्य स्वयं को धर्म से दूर रखता है। भारतीय राज्य की बागडोर न तो किसी एक धार्मिक समूह के हाथों में है और ना ही राज्य किसी एक धर्म को समर्थन देता है। भारत में कचहरी, थाने, सरकारी विद्यालय और दफ्तर जैसे सरकारी संस्थानों में किसी विशेष धर्म को प्रोत्साहन देने या उसका प्रदर्शन करने की अपेक्षा नहीं की जाती है।

धार्मिक वर्चस्व को रोकने के लिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता का दूसरा तरीका है- अहस्तक्षेप की नीति। इसका अर्थ है कि सभी धर्मों की भावनाओं का सम्मान करने और धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप करने के लिए राज्य कुछ विशेष धार्मिक समुदायों को विशेष छूट देता है। उदाहरण के लिए, सिखों को हेलमेट पहनने की आवश्यकता नहीं है।

कारण यह है कि भारतीय राज्य इस बात को मान्यता देता है कि पगड़ी पहन सिख धर्म की प्रथाओं के अनुसार महत्वपूर्ण है। अतः इन धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप से बचने के लिए राज्य ने कानूनों में रियायत दे दी है।धार्मिक वर्चस्व को रोकने के लिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता का तीसरा हस्तक्षेप का तरीका है।

उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में प्रचलित छुआछूत के कारण एक ही धर्म के लोग (ऊंची जाति के हिंदू) अपने ही धर्म के अन्य सदस्यों (कुछ नहीं निचली जातियों) को दबाते हैं। धर्म के नाम पर भेदभाव को रोकने के लिए भारतीय संविधान में छुआछूत परिधानों में हस्तक्षेप कर रहा है जो ‘निचली जातियों’ के मौलिक अधिकारों का हनन करता है क्योंकि वह भी इसी देश के नागरिक हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here