मृदा का निर्माण, वर्णन, कार्य, गुण तथा प्रकार :-

2218

मृदा भूपर्पटी की सबसे ऊपरी परत है। जिस पर समस्त वनस्पतियां उगती है। अनेक जंतुओं को आश्रम प्रदान करती है, जो इसके ऊपर अथवा अंदर रहते हैं। पृथ्वी का समस्त भूभाग मृदा से नहीं ढका है। उत्तरी ध्रुव का विशाल क्षेत्र तथा बर्फ से ढके पर्वतों पर पौधे उगाने के लिए मृदा नहीं है। इसके बारे में और जानने के लिए इस content को पूरा पढ़िएगा। इस पोस्ट के माध्यम से मृदा के निर्माण की प्रक्रिया, मृदा की तुलना एवं उसके उपयोग के बारे में जानेंगे।

मृदा का निर्माण ( Soil Formation ) :-

प्रारंभ में पृथ्वी की ऊपरी सतह चट्टानों की मोटी परतों से बनी थी। सौर ऊर्जा से यह प्रत्येक गर्म तथा वर्षा से ठंडी होती रही। निरंतर गर्म तथा ठंडी होने की प्रक्रिया से चट्टाने टूटी। 20 चट्टानों पर वर्षा के कारण दरारों में वर्षा का जल भर गया। शरद ऋतु में यह वर्षा जल जमकर बर्फ बना तथा बर्फ का आयतन बढ़ने के कारण चट्टाने और छोटे टुकड़ों में टूट गई।

चट्टानों में खनिज एवं रासायनिक पदार्थ होते हैं जो वायु में उपस्थित ऑक्सीजन के कारण ऑक्सीकृत होते हैं। ऑक्सी कृत खनिज आसानी से टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। यह लघु कर बहते जल एवं वायु द्वारा इधर-उधर फैल गए। कभी-कभी पेड़ों की जड़ें चट्टानों की दरारों में फैलने के कारण भी चट्टानें टूटी। पौधों की जड़ों में बनने वाला अम्ल भी चट्टानों के टूटने में सहायक बना। अनेक सूक्ष्म जीव भी चट्टानों के अपचयन में सहायक है। विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रिया है जैसे – भूकंप एवं ज्वालामुखी विस्फोट से भी चट्टानी टूटती है।

मृदा का निर्माण

मृदा का वर्णन (Soil profile) :-

यदि हम एक निश्चित स्थान पर एक गड्ढा ऊर्ध्वाधर नीचे की ओर खोदते हैं तो मृदा हमें विभिन्न रंगों की मृदा दिखाई देती है। और गड्ढे कि किनारों के पास संयोग दिखाई देते हैं इन पर तो या क्षितिज की व्यवस्था, वर्णन कहलाती है। सामान्य रूप से प्रत्येक मृदा में निम्नलिखित तीन परतें होती हैं।

(1) परत ‘अ’ :-

यह सबसे ऊपरी परत है। मृदा की अ परत को उच्च परत के नाम से भी जाना जाता है। उर्वरक की उपस्थिति के कारण इस परत का रंग सबसे गहरा होता है उर्वरकों का निर्माण पौधों और जंतुओं की मृत्यु तथा क्षय से होता है। बहुत से सूक्ष्म जीव तथा केंचुआ जैसे अन्य जीव इसी परत में उपस्थित होते हैं। मृदा की यह परत वायु और जल पारगामी मुलायम और मृदा की किसी भी अन्य परत से अधिक जल संग्रहण क्षमता वाली होती है। अधिकांश पौधों की जड़े इस परत में भली-भांति विकसित होती हैं।

(2) परत ‘ब’ :-

यह परत मृदा की सबसे उच्च परत के नीचे स्थित होती है। इस परत को उप मृदा के नाम से भी जाना जाता है। इस परत का रंग उच्च पद के रंग से हल्का होता है यह अधिक कठोर होती है और इसमें अधिक रेत और पत्थर स्थित होते हैं। यह परत घुलनशील खनिजों और लौह अयस्क ओके लिए समृद्ध होती है वह मृदा में उर्वरकों की मात्रा बहुत कम होती है केवल विशाल वृक्षों की जड़े ही उप मृदा तक पहुंच पाती हैं।

(3) परत ‘स’ :-

यह मृदा की सबसे निचली परत होती है। यह उपमृदा के नीचे स्थित होती है। इसमें केवल बड़ी चट्टाने और छोटे पत्थर, जिन्हें बजरी कहते हैं, होते हैं। इसे उद्गम चट्टान भी कहते हैं। इस परत में खनिज पाए जाते हैं, किंतु इसमें जैविक तथ्य (उर्वरक) अनुपस्थित होते हैं। इस परत में जड़े विकसित नहीं हो सकती। इस परत के नीचे शैल (कठोर चट्टान) उपस्थित होती है, जो पूर्णतः अजलपारगामी होती हैं और जल को अपने अंदर से बाहर नहीं होने देती है। इसलिए जल, जो उच्च पद से रिस कर नीचे आता है, सेल के ऊपर एकत्रित होता है और भूजल कहलाता है।

इसे भी पढ़ें – भारत में आदर्श चुनाव आचार संहिता क्या होती है?

मृदा के प्रकार ( Types of soil)

भारत में पाई जाने वाली मृदा को रंग, बनावट और अवयवो के आधार पर छह भागों में बांटा गया है।

(1) लाल मृदा :-

इस मृदा में आयरन ऑक्साइड होने के कारण यह रंग में लाल होती है। इसे खाद एवं उर्वरक डालकर उपजाऊ बना सकते हैं। यह मृदा स्फटिक एवं मृतिका कणों के साथ ऊपरी मृदा बनाती हैं। इसमें चुना, मैग्नीशियम फास्फोरस एवं नाइट्रोजन की मात्रा कम है किंतु पोटाश प्रचुर मात्रा में है भारत में यह मुख्य रूप से केरल तथा तमिलनाडु के आंतरिक भागों में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में पाई जाती है।

लाल मिट्टी

(2) काली मृदा :-

इस प्रकार की मृदा में अनेक प्रकार के खनिज विशेषता आयरन एवं मैग्नीशियम की योगिक पाए जाते हैं। यह रेतीली कम व चिकनी अधिक होती है। यह मृदा गणना एवं कपास उगाने के लिए प्रयोग की जाती है। यह मृदा बेसाल्टिक चट्टानों से बनी है। काली मृदा में अधिक मात्रा में आयरन, कैल्शियम, एल्युमीनियम तथा मैग्नीशियम पाया जाता है। भारत में यह महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात एवं मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में पाई जाती है।

काली मिट्टी

(3) जलोढ़ मृदा :-

यह मृदा पर्वतों से नदियों द्वारा बहा कर लाई गई किनारे की गादयुक्त मृदा के जमने से बनती है। नदी के किनारे मृतिका, रेतीली तथा गादयुक्त के जमने से बनी यह मृदा जल और कहलाती है। अमृता भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश के समुद्र तटीय क्षेत्रों में पाई जाती है जलोढ़ मृदा को सामान्य रूप से खादर कहते हैं।

जलोढ मिट्टी

(4) रेतीली मृदा :-

मृदा के नाम के अनुसार रेतीली मृदा राजस्थान एवं गुजरात के मरुस्थल क्षेत्र में पाई जाती है। इस प्रकार की मृदा बलुई, छिद्रिल तथा इस में घुलनशील लवणों की मात्रा काफी होती है। समुचित सिंचाई एवं खाद डालकर इसे खेती के लिए प्रयोग किया जा सकता है। यह मृदा दोमद है तथा इसमें कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में है। इस में नमी की मात्रा अधिक होती है।

रेतीली मिट्टी

(5) पर्वतीय मृदा :-

पर्वती मृदा बहुत उपजाऊ होती है किंतु अलग-अलग स्थान पर मृदा के अवयव बदल जाते हैं यह काली, छिद्रिल और उपजाऊ होती है। इसे पास मृदा भी कहते हैं भारत में पाए जाने वाले मृदा में सबसे ज्यादा खाद युक्त मृदा है यह कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक हिमालय के क्षेत्र में पाई जाती है।

पर्वतीय मिट्टी

(6) लाल दानेदार मृदा :-

इस प्रकार की मृदा में पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में नहीं होते क्योंकि भारी वर्षा में पोषक तत्व या तो बह जाते हैं या भूमिगत हो जाते हैं किंतु यह मृदा चाय, कॉफी, नारियल की फसल के लिए उपयुक्त है। भारत में यह मुख्य फसल रूप से पश्चिमी घाट और तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा तथा असम के कुछ भागों में पाई जाती है।

मृदा के प्रकार को आप मैप के द्वारा भी समझ सकते हैं।

इसे भी पढ़ें – असम और अरुणाचल प्रदेश के बीच सीमा विवाद क्या है?

मृदा के संघटक ( Constitutuents of soil )

मृदा का संघटन प्रत्येक स्थान पर भी निर्णय हो सकता है। प्रत्येक प्रकार की मृदा में निम्नलिखित संगठन पाए जाते हैं।

(1) अकार्बनिक लवण :-

कुछ प्रकार के अकार्बनिक लवण भी मृदा में पाए जाते हैं। जैसे – क्लोराइड, नाइट्रेट्स, कार्बोनेट्स, सल्फेट्स, सोडियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस इत्यादि। मृदा का रंग उसमें उपस्थित रासायनिक पदार्थों के कारण होता है। उदाहरण- लाल मृदा का रंग उसमें उपस्थित आयरन ऑक्साइड के कारण होता है।

(2) मृदा कण :-

मृदा में मुख्यता बालू पर मृतिका पाई जाती है। मृदा कणों की माप 0.001 मिमी से 2 मिमी तक हो सकती है। मृदा में विभिन्न मात्रा में कंकड़-पत्थर भी पाए जाते हैं। हाथ से बालों को छूने पर खुरदरेपन का तथा मृदा को छूने पर चिकनाहट का अनुभव होता है। मृदा का खुर्दा रावण और चिकनापन उसकी विशेषताओं को निर्धारित करता है। मृदा कोणों के अनुपात से ही मृदा के प्रकारों का हो निर्धारित होता है।

Internet computer project class 10th in Hindi

(3) सजीव प्राणी :-

मृदा अनेक जीवित प्राणियों का आवास स्थान भी है। चूहे के चूहे जैसे जंतु मृदा में बिल या छेद बनाकर रहते हैं। कुछ छोटे जंतु जैसे – चीटियां, कनसलाई, कनखजूरे, बिच्छू आदि भी मृदा में रहते हैं। यह जंतु मृदा को वायु के आवागमन तथा अंकुर की विभेदन से योग्य बनाते हैं। सूक्ष्मजीव जैसे- फफूंदी, जीवाणु आदि मृदा में रहते हैं। यह मृत पौधों तथा जंतुओं की अपघटन में सहायक होती हैं।

(4) जल :-

मृदा कणों के बीच में पाए जाने वाले रिक्त स्थानों में विभिन्न मात्रा में जल पाया जाता है रेत सबसे कम मात्रा में जब कि मृतिका सबसे अधिक मात्रा में जल को रोकती है। यदि मृदा की कुछ मात्रा को हम पॉलिथीन की थैली में बंद करके धूप में रख दें, तब जल की बूंदें उसमें उष्मा पाकर के रूप में थैली के अंदर दिखाई देती है। इससे यह पता चलता है कि मृदा में जल होता है।

(5) वायु :-

मृदा कणों के बीच में पाए जाने वाले रिक्त स्थानों में वायु में उपस्थित रहती है। मृदा में वायु की उपस्थिति को हम इस क्रिया द्वारा स्पष्ट देख सकते हैं। यदि मृदा का एक ढेला हम जल में डाल देते हैं, तो जल में बुलबुले उठते हुए दिखाई देते हैं यह वही वायु होती है जो मृदा के कणों में उपस्थित होती है तथा बुलबुलों के रूप में बाहर निकलती है।

(6) कार्बनिक पदार्थ (ह्यूमस) :-

मृतक जंतु, पौधे तथा उनके भाग मृदा में मिले रहते हैं। जंतु तथा मनुष्य के अपशिष्ट पदार्थ, मल आदि भी मृदा में मिल जाते हैं। फफूंदी तथा जीवाणु इनका अपघटन करते हैं। विघटित पदार्थ, पौधे तथा जंतु ही ह्यूमस कहलाते हैं।

UP Board English Medium Science Previous Year Paper

ह्यूमस का महत्व ( importance of humus)

ह्यूमस मृदा का आवश्यक अवयव है, यह एक जाली जैसा पदार्थ होता है जो नमी को सोख लेता है तथा मृदा कणों को छोटे समूहों में बांध लेता है। चट्टानों के कण जब पर्याप्त मात्रा में ह्यूमस प्राप्त कर लेते हैं। कभी भी वास्तविक मृदा कहलाते हैं।

ह्यूमस बढ़ते हुए पौधों को आवश्यक रसायनों की आपूर्ति भी करता है। क्योंकि ह्यूमस स्पंजी होती है। इसलिए यह जल को भी संग्रहित कर लेता है। वास्तव में उमस अपने भार से 600 गुना अधिक जल ग्रहण कर लेता है। हिम्मत मृदा में अनेक वायु अवकाश अथवा रंद्र होते हैं। संकटों के साथ मिल जाने पर ही उमस ऐसी मृदा निर्मित करता है जो वायु तथा जल को पौधों की जड़ों तक पहुंचने देती है।। ह्यूमर्स के बिना मृदा शुष्क तथा धूल युक्त हो जाती है अतः बगीचों तथा खेतों में हमेशा खाद डाल लेते रहना चाहिए जिससे पौधों द्वारा उपयोग कर ली गई हूं बस को विस्थापित किया जा सके। याद रखिए, उर्वरक पादप को भोजन प्रदान कर सकते हैं, लेकिन वह मृदा को ही उमस नहीं प्रदान कर सकते हैं। ह्यूमस केंचुआ, भृंगो,मिलीपिड़ी, खरगोश, चीटियों आदि जंतुओं को भी भोजन प्रदान करता है।

मृदा के कार्य :-

मृदा पौधों की वृद्धि करने में सहायक होती है। पौधों तक खनिज पदार्थ जड़ों के द्वारा ही पहुंचते हैं जिससे पौधों का पोषण होता है। मृदा का प्रयोग बर्तन बनाने, मूर्तियां बनाने तथा खिलौने बनाने में किया जाता है। मनी प्लांट के पौधे को किसी भी चौड़ी बोतल में पानी भर कर रख दे और उसमें मृदा के कर डाल दें तो वह तेजी से बढ़ने लगता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मृदा में पौधों के लिए प्रचुर मात्रा में खनिज लवण उपलब्ध होते हैं।

मृदा के गुण :-

मृदा की कई प्रकार के गुण पाए जाते हैं जो पौधों की वृद्धि करने में सहायक होते हैं। मृदा के द्वारा जलवायु पर भी प्रभाव पड़ता है; क्योंकि यदि अत्यधिक पेड़ पौधे होते हैं, तो वर्षा भी अच्छी होती है। अतः हम कह सकते हैं कि पौधों की वृद्धि होना भी जलवायु पर निर्भर करता है। मृदा के द्वारा ही विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधे पाए जाते हैं। घास उगती है, जैसे चार और प्रकृति भी सुंदर दिखाई देती है। कपास और घास के मैदान बहुत सुंदर दिखाई देते हैं जिस प्रकार कमरे को सजाने के लिए फर्श पर कारपेट बिछा देते हैं और सुंदर दिखाई देता है उसी प्रकार प्राकृतिक सौंदर्य की वृद्धि करने का यह गुण मृदा में पाया जाता है।

मृदा में नमी :-

मृदा भूमि में नमी पहुंचाती है। गर्मियों मैं भूमि की परत इतनी अधिक गर्म हो जाती है कि हम नंगे पैर चल नहीं पाते हैं पेड़ पौधे भी सूखने लगते हैं लेकिन मृदा में नमी की मात्रा अधिक होने से पेड़ पौधे सूख कर नष्ट नहीं होते हैं।

मृदा का अपरदन (Soil Erosion) :-

मृदा की ऊपरी उपजाऊ परत का प्राकृतिक या मानवीय कारणों के कारण जल या हवा के साथ वह जाने को मृदा अपरदन कहते हैं इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

(1) प्राकृतिक घटनाएं :-

वर्षा के पानी का तीव्र प्रवाह तथा आंधियों में तीव्र हवा मृदा को अपने साथ बहा उड़ा कर ले जाती है। इस प्रकार मृदा का अपरदन होता है।

(2) मानवीय कारण :-

जंगलों की अत्यधिक कटाई मानवीय कारणों में शामिल है वनस्पति, पेड़ पौधे, बड़े बड़े वृक्ष अपनी जड़ों के माध्यम से मृदा को बांधे रखते हैं। मनुष्य अपनी बढ़ती आबादी, बढ़ती घरेलू तथा औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई करता है। जिससे मृदा के कणों के बीच स्थान बढ़ जाता है तथा मृदा हल्की हो जाती है। अतः मृदा के यह कण वायु के साथ इधर उधर चले जाते हैं कभी-कभी कृषि की गलत तरीकों से भी मृदा अपरदन होता है यदि मृदा में सिंचाई की कमी हो, तो सुखी मृदा हल्की होने के कारण बह जाती है।

बार-बार खेत की जुताई भी मृदा को हल्का बना देती है, ऐसे में हवा या पानी से उसका अपरदन आसानी से हो जाता है। कभी-कभी गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं के अत्यधिक चरणों से भी घास की कमी हो जाती है जिससे मृदा अपरदन शुरू हो जाता है।

निष्कर्ष :-

अतः मृदा की गुणवत्ता तथा उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए इसका अपरदन रोकना आवश्यक है। मनुष्य को चाहिए कि वृक्षों की कटाई पर रोक लगाए, जिससे मृदा का बचाव हो सके। कृषि में भी उचित एवं वैज्ञानिक तरीकों जैसे चक्र में फसल उगाना, सीढ़ी नुमा खेती करना, खेतों की किनारे मजबूत को लगाएं रखना आदि को उपयोग में लाकर भी मृदा अपरदन पर नियंत्रण किया जा सकता है।

अगर आपको हमारे पोस्ट में दी गई जानकारी आपको अच्छी लगी हो तो इसे विभिन्न सोशल मीडिया पर शेयर कीजिए तथा कमेंट करके बताएं कि आपको यह जानकारी कैसी लगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here