जूरी सिस्टम(jury system) का तकनिकी उत्पादन एवं हथियार निर्माण से सम्बन्ध।

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jury system

इस अध्याय में बताया गया है कि किस प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था किसी देश को बेहतर हथियारों का निर्माण करने में सक्षम बनाती है और कैसे जूरी सिस्टम इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  1. बेहतर हथियारों का निर्माण वही देश कर सकता है जिनके पास अन्य श्रेणी के विभिन्न जटिल तकनीक आधारित वस्तुओ के उत्पादन की क्षमता हो।
  2. कम लागत में बेहतर तकनिकी वस्तुओ का उत्पादन करने के लिए यह जरुरी है कि अमुक देश में बड़े पैमाने पर छोटे एवं मझौले कारखानों की श्रृंखला हो।
  3. छोटे एवं मझौले कारखानों की बड़ी श्रृंखला होने के लिए यह बेहद जरुरी है कि जमीन की कीमतें कम रहे, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग कारखाने आदि लगा सके।
  4. तकनिकी उत्पादन करने वाले छोटे-मझौले कारखानों को चलाने के लिए बड़ी संख्या में उन छात्रों की जरूरत होगी जिन्हें गणित विज्ञान की बेहतर शिक्षा मिली हो।
  5. इसके बाद हमें ऐसी टेक्स प्रणाली चाहिए जो बड़ी कम्पनियों को बड़े होने के कारण अतिरिक्त लाभ एवं छोटे कारखानो को छोटा होने के कारण गलत वजह से अतिरिक्त नुकसान न देती हो।
  6. अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण चरण में हमें ऐसी पुलिस एवं अदालतें चाहिए जो छोटे कारखाना मालिको से घूस वसूल करके उनकी लागत अतिरिक्त रूप से न बढाए।

दुसरे शब्दों में, यदि कोई देश जमीन की कीमतें कम रखने में कामयाब हो जाता है तो अमुक देश में छोटे छोटे कारखानो की बड़ी श्रृंखला खड़ी होने लगेगी। और फिर यदि हम इन छोटे कारखानों को कर अधिकारीयों एवं पुलिस-जज से बचाने में सफल हो जाते है तो देश में वह ढांचा खड़ा हो पाता है जो हथियारों की तकनीक जुटाने का आधार बनता है।

jury system
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छोटे कारखाना मालिको की बाधा :
जब बाजार में छोटे-मझौले कारखानों का हिस्सा बढ़ता है तो बड़ी कम्पनियों को नुकसान होता है, अत: बड़ी कम्पनियों के मालिक नेताओं को घूस देकर / दबाव बनाकर ऐसे कानून गेजेट में छपवाते है जिससे वे छोटे कारखानों की लागत अतिरिक्त रूप से बढ़ाकर उन्हें बाजार से बाहर कर सके।

और इसके लिए तकनिकी वस्तुओ के उत्पादन की बुनियादी तकनिकी पर एकाधिकार रखने वाली बड़ी कम्पनियों के मालिक यानी पेड मीडिया के प्रायोजक ऊपर दिए गए प्रत्येक चरण को इस तरह तोड़ते है कि छोटे कारखानों की स्थापना करना एवं उन्हें चलाना मुश्किल हो जाए।

पेड मीडिया के प्रायोजक राजनेताओं के माध्यम से गेजेट का इस्तेमाल करके गणित-विज्ञान की शिक्षा का स्तर तोड़ देते है, जमीन की कीमतें ऊँची बनाए रखते है, बड़ी कम्पनियों को अतिरिक्त मुनाफा देने वाली कर प्रणाली लागू करवाते है। बावजूद इसके कई छोटे एवं मझौले कारखाने पनपते जाते है, और फिर अंतिम चरण में इन्हें तोड़ने के लिए भ्रष्ट जजों का इस्तेमाल किया जाता है। जज सिस्टम का डिजाइन इस तरह का होता है की पैसे फेंकने से आदमी का काम हो जाता है।

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बड़े कारखाना मालिको के पास ज्यादा पैसा होता है, अत: वे जजों के सामने पैसा फेंककर छोटे एवं मझौले कारखाना मालिको को दबा देता है। तो जज सिस्टम अंतिम आरी है जिसका इस्तेमाल बड़ी कम्पनियों के मालिक छोटे एवं मझौले कारखाना मालिको को काटने के लिए करते है। जूरी सिस्टम जजों की इस आरी से छोटे कारखाना मालिको की रक्षा कर देता है, अत: छोटे कारखाना मालिको को बचाने के लिए जूरी सिस्टम सबसे महत्त्वपूर्ण है।

तकनिकी उत्पादन में गुणवत्ता लाने के लिए हमें भारत में ढेर सारी छोटी छोटी उत्पादन इकाइयाँ चाहिए।

(1) ढेर सारी छोटी इकाईया क्यों ? कुछ बड़ी इकाईया क्यों नहीं ?


क्योंकि कोई भी विशिष्ट उत्पाद कई प्रकार के पार्ट्स को मिलाकर बनाया जाता है। सभी पार्ट्स यदि उच्च गुणवत्ता वाले होंगे तो ही उत्पाद बेहतर बनेगा। एक भी पुर्जा कमतर होने से उत्पाद अपनी गुणवत्ता खो देगा। उदाहरण के लिए एक मोबाईल फोन डिस्प्ले स्क्रीन, बेटरी, माइक्रोफोन, सेमी कंडकटर चिप, स्पीकर आदि जैसे कई पुरजो को जोड़कर बनाया जाता है। डिस्प्ले स्क्रीन बनाने की सैंकड़ो कम्पनियां हो सकती है। उनमे आपसी प्रतिस्पर्धा होने से कोई दो-चार कम्पनी सबसे बेहतर डिस्प्ले बना पायेगी।

दुनिया में कोई कम्पनी नहीं जो अपने जटिल प्रोडक्ट के सभी पुर्जे का उत्पादन स्वयं करती हो। वह केवल महत्तवपूर्ण एवं जटिल पुर्जे का उत्पादन स्वयं करती है, और शेष पुर्जे अन्य छोटी छोटी कम्पनियों से लेती है। और यही प्रक्रिया अन्य पुरजो के साथ होगी। मोबाइल बनाने वाली कम्पनी इन कम्पनियो से ये पुर्जे खरीदती है, और इन्हें फिट करके एक डिजाइन तैयार करती है। हवाई जहाज से लेकर कारो तक और कंप्यूटर तक इसी तरह प्रोडक्ट तैयार किया जाता है।

अत: किसी देश में एक बड़ी तकनिकी उत्पादक कम्पनी खड़ी करने के लिए यह जरुरी है कि वहां पर छोटी छोटी कई इकाइयों हो जो बेहतर तकनिकी वस्तओ का उत्पादन करें। यदि देश का मानव संसाधन निचे दी गयी प्रक्रिया से गुजरेगा और यदि हम जज-पुलिसअधिकारी-नेता आदि से उनकी रक्षा कर पायेंगे तो अंतिम रूप में हमारे पास लाखों कार्यशील निर्माण इकाइयाँ एवं वे इंजीनियर्स उपलब्ध होंगे जो जटिल प्रौद्योगिकीय उत्पादों के निर्माण के लिए बांछित जमीन तैयार करेंगे। यदि किसी देश के पास छोटे कारखानों की श्रृंखला का आधारभूत ढांचा नहीं है तो देश जटिल तकनिकी उत्पादन में पिछड़ जायेगा।

गणित विज्ञान की बेहतर शिक्षा- जूरी सिस्टम कानून के द्वारा
→ छोटी छोटी इकाइयों के लिए सस्ती जमीन की उपलब्धता
→ छोटी इकाइयों को प्रोत्साहित करने वाली कर प्रणाली
→ लागत घटाने एवं छोटी इकाइयों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनाये रखने के लिए भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन
→ औद्योगिक मामलो को निपटाने के लिए त्वरित, निष्पक्ष एवं ईमानदार अदालतें।

तो भारत में छोटे कारखानों की विशाल श्रृंखला क्यों नहीं है ?

जूरी सिस्टम/jury system

(2) तो भारत में बड़े पैमाने पर कारखाने क्यों नही है ? या जो है वे भी कम कीमत में बेहतर उत्पाद क्यों नहीं बना रहे ?

  1. अदालतो के कानून
  2. पुलिस के क़ानून
  3. जमीन के क़ानून
  4. टैक्स के क़ानून

कारखानों के मालिक आपको इस बारे में बताएंगे कि कैसे और कितने तरीको से उनसे घूस बसूल की जाती है। किन्तु वे अपने अनुभव बताने के लिए उपलब्ध नहीं होते। इसकी कई वजहें है। अब्बल तो वे सोशल मीडिया जैसे मंचो पर होते नहीं है और यदि होते भी है तो लगभग नहीं के बराबर इसका इस्तेमाल करते है। और इस पर भी वे लिखते नहीं। उन्हें समय मिला तो ज्यादा से ज्यादा थोडा पढ़ लेंगे।

दूसरी बड़ी वजह यह है कि. जब आदमी कारोबार करता है. तो इस बात को समझ लेता है कि चुपचाप रहकर अपना काम करने में फायदा है। तो वह खुद को जाहिर नहीं करता। जितना ज्यादा वह जाहिर होगा उतना ज्यादा नेता-जज-पुलिस की नजरो में आएगा और घूस की राशि बढ़ जायेगी। वे डरे हुए रहते है और राजनैतिक मामलों में दखल नहीं देते। वे चुपचाप मार खा लेंगे और घूस दे देंगे। क्योंकि यदि वे लड़ने जायेंगे तो उनका धंधा बंद हो जाएगा।

जब आप कारखाने के लिए जमीन लेने जाते है तो पैसा देते है। इसके बाद उसके व्यावसायिक अंतरण के लिए लाखों की घूस देते है। इसके बाद पर्यावरण विभाग की अनुमति, बिजली कनेक्शन के लिए घूस देते है। और इसी तरह की आधा दर्जन मदों में घूस देने के बाद आप काम शुरू करते है। और जैसे ही आप प्रोडक्शन शुरू करते है और आपका कारोबार चलने लगता है वैसे ही लगभग 4-5 विभागो की नजरो में आप आ जाते हो, और वे विभिन्न कानूनों के उलंघन करने के आपको नोटिस भेजने लगते है।

अब या तो आप उन्हें हफ्ता देना शुरू कर दो या फिर अपना धंधा छोड़कर उनके विभागों के चक्कर लगाते रहो। और जैसे ही आप शिकायत लेकर अदालत में जाते हो वैसे ही आप अब अदालतों के ग्राहक बन जाते हो !! इस तरह आप लगातार तावान चुकाते हो और आपका धंधा टूटने लगता है !! महँगी जमीन, घूसखोरी और अदालतों के चक्कर लगाने का नतीजा यह होता है कि आपके माल की लागत बढ़ जाती है और बिक्री गिर जाती है !!

अमेरिका-फ़्रांस-ब्रिटेन में जूरी सिस्टम होने के कारण वहां पर कारखाना मालिको को सुरक्षा मिली हुयी है और उनका सारा तकनिकी विकास निजी कम्पनियों द्वारा किया गया है। और चाइना में तकनीकी पुर्जे बनाने वाली छोटी इकाइयों का विशाल आधार होने के कारण सरकारी कम्पनियों को निजी क्षेत्र का सपोर्ट है। भारत में तकनिकी उत्पादन का आधारभूत ढांचा नहीं है और जो कुछ कम्पनियां है उन्हें जज-पुलिस-नेताओ का गठजोड़ पनपने नहीं देता !! और जज इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है !!

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिको को थानों-अदालतों की प्रणाली ऐसी चाहिए कि, जरूरत पड़ने पर वे पैसा फेंक कर जजों को खरीद सके, या उसे दबा सके। यदि वे जज-पुलिस को काबू नहीं कर पायेंगे तो उनका धंधा ख़त्म हो जायेगा। एक उदाहरण से इसे समझिये।

मान लीजिये कि, x एक ऑटोमोबाइल इंजीनियर है और कार के ऐसे 1200cc इंजन का अविष्कार करता है जो 30 का एवरेज देता है। अब यदि बटाटा, पुंडई आदि को अपना धंधा बचाना है तो उन्हें इस आदमी को फैक्ट्री लगाने से रोकना होगा। यदि देश में व्यवस्था इस प्रकार की है कि पुलिस एवं जजों को खरीदा या दबाया नहीं जा सकता तो वे इस आदमी को रोक नहीं पायेंगे। उन्हें इस तरह की व्यवस्था चाहिए कि वे इसे पेटेंट लेने, जमीन खरीदने, फंड जुटाने, जमीन का अंतरण कराने, उत्पादन के लिए आवश्यक अनुज्ञा लेने, एवं विभिन्न विभागों से क्लियरेंस लेने से रोक सके आदि।

असल में वे इसे एकदम रोकेंगे नहीं। लेकिन इसके हर सरकारी काम में इतने अडंगे डालते जायेंगे कि यह बरसों तक इधर से उधर घूमता रहेगा, और कभी फैक्ट्री खड़ी नहीं कर पायेगा। देरी होने से इसकी लागत बढ़ने लगेगी और इसके निवेशक प्रोजेक्ट में से पैसा खींच लेंगे।

उदाहरण के लिए जब यह पेटेंट फाइल करेगा तो बड़ी कम्पनी के मालिक किसी अन्य छोटी फैक्ट्री मालिक या इंजीनियर से कहेगा कि वह इस आदमी के खिलाफ पेटेंट चोरी का फर्जी आरोप दर्ज करें। इसके बाद वे जज को पैसा देंगे और पेटेंट की फ़ाइल को अटकवा देंगे। और इस तरह हर चरण पर इसे पुलिस-जज-नेताओ से लड़ना पड़ेगा। तो बड़ी कम्पनियों को यदि भारत में अपना कारोबार बचाकर रखना है तो ऐसे सभी लोगो को रोकना होता है, जो इन्हें चुनौती दे सकते है। और इन लोगो को रोकने के लिए जज, पुलिस एवं अन्य सरकारी उच्च अधिकारीयों का इस्तेमाल किया जाता है।

तो धनिक चाहते है पुलिस एवं अदालतें उनके निर्णायक कंट्रोल में रहे। यदि पीएम पुलिस एवं जजों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के कानून छापने की कोशिश करता है तो सभी जज, शीर्ष पुलिस अधिकारी, सभी पेड मीडियाकर्मी, सभी बुद्धिजीवी, सभी धनिक, सभी सम्पादक, सभी राजनेता, सभी राजनैतिक पार्टियाँ, सभी मंत्री, सभी सांसद, सभी विधायक आदि एकजुट होकर पीएम के खिलाफ हो जायेंगे !! स्थिति यह बन जायेगी कि पीएम इस कानून को अपने कार्यालय से गेजेट के प्रिंटर ऑफिस तक भी नहीं पहुंचा सकेगा!!

क्योंकि. यदि x ने ऐसी कम्पनी खड़ी कर ली कि जो बेहतर इंजन बनाती है तो अन्य कम्पनियां x से इंजन खरीदना शुरू करेगी और फिएट, फोर्ड आदि की बैंड बज जायेगी। अभी ज्यादातर कम्पनियों को कारो के इंजन फिएट भी बेचता है। और X यदि तकनीक में आत्मनिर्भर हो जाता है तो 10 साल बाद वह जेसीबी (केन) की टक्कर के इंजन बनाने लगेगा और JCB के हाथ से पूरे इण्डिया का बाजार निकल जायेगा !! JCB ब्रिटेन की कम्पनी है और अभी पूरा भारत JCB पर ही चल रहा है।

यदि भारत में JCB जैसा इंजन बनाने का फाउन्डेशन बन जाता है तो अगले 10 साल में भारत में हाई स्पीड ट्रेनों के इंजन बनने लगेंगे। और यदि पुलिस-अदालतें सुधार दी जाती है तो इस तरह के कई x बाजार में आ जायेंगे और भारत फाइटर प्लेन के इंजन तक बनाने लगेगा।

मेरा बिंदु यह कि, यदि स्थापित धनिक वर्ग पुलिस-जज-अधिकारी पर से नियंत्रण खो देता है, तो अगले 10 वर्षों में ऐसी काफी कम्पनियां बाजार में आ सकती है, जो इनका बाजार खाने लगेगी, और इसीलिए उन्हें भारत के जजों-पुलिस पर पूरा कंट्रोल चाहिए। तो ये जो औद्योगिक घराने आप दशको से देख रहे है,

वे ऐसे ही शीर्ष पर नहीं बने हुए है। उन्हें निरंतर शीर्ष पर बने रहने के लिए राजनीती में काफी निवेश करना पड़ता है। किन्तु इतने बड़े देश में लाखों लोग कारोबार कर रहे है, और इनमें से ही कई ऐसे भी जो कल चुनौती बन सकते है। अब इतने बड़ी संख्या में लोगो पर नजर नहीं रखी जा सकती। इसका इलाज ऐसे क़ानून छपवाना है कि छोटी कम्पनियां पनपे ही नहीं।

तो वे इस तरह के कानून छपवाते है कि जज, पुलिस एवं अधिकारी वर्ग बेधडक होकर लोगो से पैसा खींच सके। ऐसे कानून बनाने के बाद उन्हें कभी जज एवं पुलिस को कुछ कहना नहीं पड़ता कि इसे परेशान करो उससे पैसा लो आदि। जज-पुलिस-अधिकारी-अधिकारी हर समय पैसा बनाने वालो की घात में रहेंगे, और इनसे पैसा खींचते रहते है। इस तरह 90% कम्पीटीशन तो ये लोग फर्स्ट राउंड में ही ख़त्म कर देते है। मतलब उनकी भूण हत्या हो जाती है।

मैं इसे सांप छोड़ना कहता हूँ। जिस तरीके से सांप-सीढी के बोर्ड में सांप और सीढियाँ होती है सांप काट ले तो गोटी निचे आ जाती है, उसी तरह से ये कारखाना लगाने एवं चलाने के रास्ते में कई तरह के कानूनी सांप छोड़ कर रखते है।

आदमी जमीन लेने जाएगा तो कीमतें इतनी ज्यादा है कि, ज्यादातर खिलाड़ी खेल ही नहीं पायेंगे। फिर जब वह जमीन का व्यवसायिक अंतरण करने जाएगा तो NOC के लिए सरपंच, तहसीलदार, कलेक्टर फिर बिजली कनेक्शन के लिए ExEN, पर्यावरण की NOC और इसी तरह से जितने सरकारी अधिकारियों के पास जायेगा तो या तो पैसा देगा, या फिर महीनो तक उनके चक्कर लगाएगा।

ये सब सिस्टम के कानूनी सांप है, जो कारोबारियों को या तो काटते रहते है, या उनकी फ़ाइल अटका कर उनकी लागत बढ़ाते रहते है। लेकिन किसी बड़े आदमी जैसे बटाटा आदि का काम होगा तो वो मंत्री से एक फोन कराएगा और तुरंत काम हो जाएगा !! इस तरह सिस्टम का यह सारा भ्रष्टाचार छोटे कारखाना मालिको की लागत निरंतर बढाकर उन्हें आगे बढ़ने नहीं देता।

और जो लोग ऊपर निकलकर शीर्ष उद्योगपतियों को चुनौती देते लगते, उन्हें निपटाने के लिए जजों एवं उच्च अधिकारीयों का इस्तेमाल किया जाता है। सचिवालयो में, राष्ट्रपति भवनों में, मंत्रालयों आदि में जो सचिवीय स्तर के अधिकारी बैठे है उन्हें काम निकलवा देने, एवं सूचनाएं देने के एवज में स्थापित धनिकों से मोटा पैसा मिलता है।

धनिक वर्ग अपने वफादार अधिकारीयों का ध्यान रखते है, और उन्हें प्रमोट करवाकर ऊँचे पदों पर नियुक्त करवा देते है। बड़ी कंपनियों के मालिक एवं औद्योगिक घराने पिछले 70 साल से लगातार इनसे डील कर रहे है। नेता सिर्फ 5 साल के लिए आता है, और पैसा बनाकर निकल जाता है। किन्तु ये अधिकारी बने रहते है। अत: इस पूरे सिस्टम पर धनिक वर्ग की निरंतर पकड़ बनी रहती है।

इसके अलावा भारत के नेताओं ने गेजेट में ऐसे कानून छापे है कि कोई भी व्यक्ति किलोमीटरो के हिसाब से जमीन खरीद सकता है और एक बार जमीन खरीदने के बाद उसे पूरी जिन्दगी इस जमीन पर कोई टेक्स नहीं चुकाना होगा !! इस वजह से जिन लोगो के पास ज्यादा आय है वे जमीन खरीदते है और भूल जाते है।

इस वजह से जमीन निरंतर महंगी होती जाती है। आज भारत में जमीन इतनी महंगी हो चुकी है कि किसी मध्य वर्ग के आदमी के लिए जमीन खरीद कर कोई कारोबार शुरू करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। आपके पास यदि पुश्तैनी जमीन है तो बात और है। और कारखाने लगाने के लिए सस्ती जमीन की उपलब्धता पहली जरूरत है। तो जमीन की कीमतें बेहद ऊँची होने कारण कारखाने शुरू करना ही बहुत मुश्किल है। और वक्त के साथ कीमतें और भी बढ़ती चली जायेगी !!

यह तो कारखाने शुरु करने की बात है, लेकिन कारखाने चलाने में सबसे बड़ा रोड़ा जज-पुलिस-नेता होते है। यदि आप कारखाना मालिको को इन 3 शिकारियों से बचा पायेंगे तो कारखाने चलेंगे वर्ना नहीं चलेंगे। तो जब तक हम कारखाना मालिको के पैरो में पड़े ये 3 पत्थर नहीं खोलेंगे तब तक भारत में बड़े पैमाने पर तकनिकी उत्पादन नहीं किया जा सकता।

पाठक इस बात पर ध्यान दें कि इसमें भी सबसे बड़ी बाधा जज है। आप पुलिस एवं नेताओं को कितना भी ईमानदार बना दें. इससे कोई फर्क नहीं आएगा। भ्रष्ट अदालतें अकेले ही पूरे देश की तकनिकी इकाइयों को पीसने के लिए काफी है। नेता और पुलिस उतने मारक नहीं है जितनी अदालतें है।

हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज का एक ही फैसला देश की लाखों छोटी इकाइयों को निगल जाता है। और इसे किसी भी तरह से रोका नहीं जा सकता। आप नेता को बाध्य कर सकते है, पुलिस की शिकायत कर सकते हो लेकिन जजों के फैसले की आलोचना करने या उन पर आरोप लगाने से भी अवमानना का केस बन जाता है, और आपको जेल हो सकती है !! और अवमानना हुई है या नहीं हुयी है, इसका फैसला भी जज ही करते है !!

(3) क्या जापानियों के आने से हमें बुलेट ट्रेन की तकनीक नहीं मिलेगी, जैसे ऑटोमोबाइल में विदेशियों के आने से मिली?

चीन और जापान के पास जो बुलेट और हाई स्पीड ट्रेने है वे उन्होंने खुद ने बनायी है। इसीलिए ये ट्रेने वहां पर समृद्धि लाती है। किसी देश के नागरिक जब बुलेट ट्रेन का इतना बड़ा इन्फ्रास्त्रक्चर खुद खड़ा करते है, तो दर्जनों क्षेत्र में तकनिकी विकास होता है, हजारो इंजीनियरों को तकनिकी काम करने का अवसर मिलता है, सैंकड़ो छोटी-मोटी स्थानीय इकाइयां विकसित होती है,

और सब तरीके से वाकयी विकास होता है। लेकिन जब हम विदेशियों को गारंटीड मार्किट देकर उन्हें अपने देश में ट्रेन चलाने की मोनोपॉली देते है तो तकनीक का हस्तांतरण नहीं होता। तकनीक का जुटाने के लिए स्थानीय स्तर पर उत्पादन की विशाल श्रृंखला चाहिए।

1990 से पहले तक ब्रिटिश+अमेरिकन हथियार निर्माता भारत की राजनीती को प्रत्यक्ष रूप से कंट्रोल नहीं कर रहे थे। विदेशियों का दखल देशी धनिकों के माध्यम से था, और देशी धनिकों की पकड़ राजनीती पर काफी मजबूत थी। तब भारत के शीर्ष उद्योगपतियों के कारखाने ब्रिटिश-अमेरिकन धनिकों की मशीनों पर चल रहे थे, अत: वे उनके प्रति वफादार थे। और जब ब्रिटिश भारत से गए तो भारत के शीर्ष उद्योगपतियों यह सुनिश्चित किया कि भारत में तकनिकी उत्पादन करने वाली नयी कम्पनियां न पनप सके। इसमें लाइसेंस परमिट राज सबसे ज्यादा नकारात्मक कानून था।

लाइसेंस राज क्या था : तब भारत में कारखाना लगाने के लिए सरकार से कई सारे लाइसेंस एवं अनुमतियाँ लेनी होती थी। कारखाने का साइज क्या होगा, कितना उत्पादन करोगे, क्या उत्पादन करोगे आदि। और कारखाना लगाने के बाद भी सरकार जितने उत्पादन की अनुमति दे उतना ही प्रोडक्शन कर सकते थे। एक फैक्ट्री लगाने के लिए अमूमन 50 से 60 सरकारी विभागों से परमिशन लेनी पड़ती थी, और किसी भी समय सरकार लाइसेंस रद्द कर सकती थी। यह लिखने की जरूरत नहीं है कि प्रत्येक अधिकारी को घूस भी देनी पड़ती थी।

1990 में WTO समझौता होने के बाद से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी जाने लगी और उन्होंने भारत में आना शुरू किया। जैसे जैसे विदेशियों का भारत में दखल बढ़ा, उन्होंने भारत में ऐसे कानून छपवाने शुरू किये जिससे भारत की स्थानीय इकाइयां तबाह हो।

और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। जैसे जैसे विदेशी निवेश बढ़ता जाएगा वे गेजेट में कानून छपवाकर भारत की स्थानीय इकाईयो को तोड़ते जायेंगे ताकि बाजार में उनका हिस्सा बढ़ता जाए। अध्याय (24) में इस बारे में अतिरिक्त विवरण दिए गए है।

3.1. भारत को ऑटोमोबाइल की तकनीक कैसे मिली?

भारत में ऑटोमोबाइल क्षेत्र में जब विदेशी आये वह 1985 के समय की घटना है। तब और अब में राजनैतिक परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका है।

  1. पेड मीडिया विदेशी कम्पनियों के नियंत्रण में नहीं था। और इस पर भी भारत के सिर्फ 10% नागरिक ही पेड मीडिया के सम्पर्क/प्रभाव / चपेट में थे।
  2. नागरिको को 24 घंटें चिल्लर मुद्दों पर व्यस्त रखने के लिए सोशल मीडिया की आई टी सेल्स नहीं थी। इस वजह से असली मुद्दे सतह पर भी आ जाते थे, और ध्यान खींचने के लिए टिक भी पाते थे।
  3. भारतीय नेता एक हद तक चंदो के लिए देशी कारखाना मालिको पर टिके हुए थे।
  4. यदि फैक्ट्री मालिक किसी फैसले का विरोध करते तो राजनैतिक पार्टियों के पास आईटी सेल के ट्रोल्स नही थे।
  5. कारखाना मालिको को सुना जाता था, और सरकार के फैसलों का विरोध करने पर जनता फैक्ट्री मालिको को संदेह की नजरो से नहीं देखती थी।
  6. भारत के कई एनजीओ और सामजिक नागरिक संगठनों को ये लोग चंदे देते थे और इस वजह से वे स्ट्रीट मूवमेंट खड़ा करके सरकार को विचलित करने की क्षमता रखते थे।

तब भारत के राजनेताओं के पास भी कैडर बेस था, और वे चुनाव जीतने के लिए पेड मीडिया पर बुरी तरह से निर्भर नहीं थे। और उस दौर में समीकरण कुछ इस तरह था – देशी धनिक + भारतीय नेता Vs विदेशी धनिक !! मतलब देशी धनिक एवं हमारे राजनेता एक ही पाले में थे।

दुसरे शब्दों में, तब विदेशियों की भारत में जड़ें उतनी गहरी नहीं थी, कि वे नेताओं+कार्यकर्ताओ+देशी धनिकों के गठजोड़ को आसानी से दबा सके। किन्तु मीडिया में विदेशी निवेश की अनुमति देने के साथ ही पेड मीडिया ने तेजी से विस्तार करना शुरू किया और पेड मीडिया के माध्यम से विदेशी सीधे नागरिको की राय को नियंत्रित करने लगे। आज भारत में पेड मीडिया का नियंत्रण इतना बढ़ गया है कि मुख्यधारा की सभी पार्टियाँ एवं उनके ब्रांडेड नेता चुनाव जीतने और टिके रहने के लिए पूरी तरह पेड मीडिया पर निर्भर है !!

3.2. ऑटोमोबाइल क्षेत्र में ऍफ़डीआई :

तो उपरोक्त परिस्थिति में जब ऑटो मोबाइल क्षेत्र में विदेशी आये तो स्थानीय उद्योगपति यह शर्त रखवाने में कामयाब रहे कि –
जो भी विदेशी कम्पनी भारत में ऑटोमोबाइल फैक्ट्री लगाएगी उसे किसी न किसी भारतीय कम्पनी के साथ पार्टनरशिप करनी पड़ेगी। और जॉइंट वेंचर का यह समझौता कम से कम 10 वर्षों तक चलाया जाएगा।

यह सब 1982 से 1986 के आस पास की बात है जब सुजुकी ने टीवीएस, मारुती और हौंडा ने हीरो आदि के साथ मिलकर प्लांट डाले। जॉइंट प्लांट के कारण देशी धनिक विदेशियों की सवारी करने में कामयाब हुए। और इस तरह ऑटोमोबाइल की उनकी तकनीक रिसकर भारतीय कम्पनियों में आने लगी। यहाँ तक कि जब जॉइंट वेंचर की शर्त के 10 वर्ष पूरे हो गए तो भी भारतीय धनिक समझौते का विस्तार आगे बढ़ाने में कामयाब रहे। मतलब तब तक भी देशी धनिकों की पकड़ भारतीय नेताओं पर बनी हुयी थी और हमारे नेता विदेशियों की कठपुतली नहीं बने थे।

3.3. विदेशियों की भारत के नेताओ पर निर्णायक बढ़त :

देशी धनिक+नेताओं Vs विदेशी धनिक की इस निर्णायक लड़ाई का अंतिम बिंदु कारगिल युद्ध था। कारगिल युद्ध में अमेरिका ने वाजपेयी सरकार को अपना देश पूरी तरह से खोलने के लिए बाध्य कर दिया था।

और कारगिल के कारण हमें फिर मीडिया में ऍफ़डीआई की अनुमति देनी पड़ी। मीडिया में ऍफ़डीआई को रोकने के लिए अम्बानी और अन्य भारतीय शीर्ष उद्योगपतियों ने काफी कोशिश की थी किन्तु वे असफल रहे। सन 2001 के आस पास विदेशियों ने मीडिया को टेक ओवर करना शुरू किया। मतदाताओं के मीडिया की पकड़ में जाते ही भारत के नेता उनके पाले में जाने लगे। नेताओं को कंट्रोल करने का एक महत्त्वपूर्ण औजार evm भी थी। 2009 में चुनावी नतीजे देखकर बीजेपी-संघ के शेष नेता भी यह समझ चुके थे कि इवीएम आने बाद उनके हाथ में अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है। तो मीडिया के अलावा दूसरा एक बड़ा फेक्टर इवीएम था, जिसने हमारे नेताओं को उधर धकेलना शुरू किया।

3.4. तब हमारे नेता और शीर्ष उद्योगपति किस बिंदु की जानबूझकर उपेक्षा कर रहे थे?

वे इस बात की लगातार अवहेलना कर रहे थे कि विदेशियों एवं भारत के बीच सैन्य अनुपात लगातार बिगड़ता जा रहा था। श्रीमति इंदिरा गांधी जी ने इस सैन्य अनुपात को काफी हद तक संतुलित करने की कोशिश की, और वे इसमें एक हद तक सफल भी रही। अर्जुन टैंक, तेजस लड़ाकू विमान, मिसाइलें, परमाणु कार्यक्रम आदि सभी प्रोजेक्ट इंदिरा जी ने ही शुरू किये थे. और ये सभी प्रोजेक्ट स्वदेशी तकनीक खड़ी करने का उद्देश्य लेकर शुरू किये गए थे। किन्तु यह काफी नहीं था।

दरअसल, उस समय दोनों वर्ग (हमारे नेता और धनिक) जनता को अधिकार दिए जाने के पक्ष में नहीं थे, अत: इन्होने पुलिसअदालतों को सुधारने के लिए कोई क़ानून नहीं छापें। और न ही इन्होने जमीन की कीमतों को निचे लाने के लिए कोई क़ानून बनाया। उस दौर में नेता एवं भारतीय धनिक लाइसेंस राज की निति को बनाये रखने का समर्थन करते रहे जो कि भारत के 100-50 घरानो को अतिरिक्त फायदा देती थी।

लेकिन राष्ट्र को वास्तविक रूप से मजबूत बनाने के लिए जिस ग्रोथ की जरूरत होती है, उसके लिए लाइसेंस राज की यह व्यवस्था बाधा थी। चूंकि उन्होंने नागरिको को अधिकार देने से इनकार कर दिया, अत: भारत के लाखो कार्यकर्ता पंगु होकर विदेशियों को रोकने की दौड़ से बाहर हो गए। यदि अदालतें-पुलिस सुधार जाती, लाइसेंस राज ख़त्म कर दिया जाता, और जमीन की कीमतें कम कर दी जाती तो सिर्फ 10 वर्षों के भीतर भारत बुलेट ट्रेनों से लेकर, लड़ाकू विमान तक बनाने की तकनीक जुटा सकता था। और इस प्रक्रिया के दौरान हमारे पास छोटी-मझौली इकाइयों का बह आधार तैयार होता जो सभी प्रकार के तकनिकी विकास की जमीन तैयार करता है।

किन्तु उपरोक्त क़ानून आने से उस समय के 100-50 घरानों एवं नेताओं को नजदीक का नुकसान था, और इसीलिए उन्होंने इसे नहीं चुना। और अब वे भी और हम भी दूर का नुकसान भुगत रहे है !! हमारे नेताओ एवं देशी धनिकों ने इस बात की उपेक्षा की कि यदि सैन्य अनुपात नहीं सुधारा गया तो अंततोगत्वा विदेशी भारत में घुस आयेंगे। और अंत में विदेशी इन्हे दबाने में कामयाब रहे। इसमें एक सबसे बड़ी वजह भारत के राजनैतिक कार्यकर्ता भी रहे,

जिन्होंने उस समय भी अदालतों-पुलिस को सुधारने की मांग करने की जगह ब्रांडेड नेताओं का पीछा करके अपना और देश का समय बर्बाद किया। भारत के राजनैतिक कार्यकर्ता आज भी उसी ढर्रे पर चल रहे है। उन्हें इस बात की पूरी फ़िक्र रहती है कि आज अमुक नेता ने क्या कहा किन्तु वे इस बात को तवज्जो नहीं देते कि जजों एवं पुलिस का भ्रष्टाचार सुधारने के लिए कौनसे कानून लागू करने के लिए प्रयास करने चाहिए।

नेताओ को कंट्रोल में लेने के बाद उनके पास क़ानून बनाने की शक्ति आ गयी। और फिर उन्होंने गेजेट का इस्तेमाल करके देशी धनिकों को धकेलना शुरू किया। आज भारत की कोई भी पॉलिटिकल पार्टी स्थानीय उद्योगपतियों के पाले में नहीं बची है। पेड मीडिया के कारण सब के सब विदेशियों पर बुरी तरह से निर्भर हो चुके है।

3.5. जब विदेशी आये तब भारत की ऑटोमोबाइल कम्पनियों की स्थिति क्या थी?

देखिये, जिस देश में अदालतें भ्रष्ट होती है, उस देश में अंततोगत्वा बड़ी कम्पनियां मझौली-छोटी कम्पनियों को निगल ही जाती है, और जिस देश में छोटी इकाइयों का आधार नही होता वहां पर तकनीक का आविष्कार करने का भी आधार नही होता। जवाहर लाल और श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने चूंकि अदालतों को सुधारने के लिए कानून नहीं छापें अत: भारत की ऑटोमोबाईल कम्पनियों के पास तब भी जटिल इंजीनियरिंग का आधार नहीं था।

भारतीय कम्पनियों के पास वाहनों के उत्पादन के कारखाने थे, और वे राजदूत से लेकर स्कूटर तक के टू स्ट्रोक इंजन के वाहन बना रहे थे। तब तक जापानी फ़ोर स्ट्रोक इंजन बना चुके थे !! फोर व्हीलर में टाटा, महिंद्रा जैसी कम्पनियां थी। किन्तु लाइसेंस राज होने के कारण इन्हें कम्पीटीशन का सामना नहीं करना पड़ता था। जब ब्रिटिश गए थे तो इन्हें काफी सारी जमीन ट्रांसफर दे गए, और आजादी के बाद भी इनकी ज्यादातर फैक्ट्रियां विदेशियों के उपकरणों पर ही चल रही थी। और इस बढ़त के कारण बिना कम्पीटीशन के भी ये लोग कमतर प्रोडक्ट बनाकर भारत के बाजार में टिके हुए थे।

लाइसेंस राज के कारण ये लोग अपनी मोनोपॉली बनाकर बैठे थे, और इस मुगालते में थे कि उन्हें छेड़ने कोई न आएगा !! दसरे शब्दों में 1985 में विदेशियों के आने से पहले भी भारत की जो ऑटोमोबाइल कम्पनिया काम कर रही थी वे कमतर थी, और विदेशियों की तुलना में घटिया प्रोडक्ट बना रही थी। और इसकी वजह यह थी कि तकनिकी विकास के लिए छोटी-मझौली इकाइयों का जो बेस चाहिए वह भारत में मौजूद नहीं था। वे सिर्फ अतिरिक्त फायदा देने वाले गलत कानूनों एवं विरासत के कारण टिके हुए थे।

लेकिन 1985 में जो विदेशी ऑटोमोबाइल कम्पनियां भारत में आई उनके पास अपने देश में ऑटोमोबाइल के तकनिकी विकास का आधार था, और इसी वजह से उनकी तकनीक बेहतर थी। मतलब होंडा भले ही अपनी फैक्ट्री भारत में आकर चला रहा है, किन्तु इसके लिए तकनिकी आविष्कार जापान एवं अमेरिका में ही होता है, भारत में नहीं। क्योंकि जापान और अमेरिका में ऑटो मोबाइल क्षेत्र में काम करने वाली छोटी-मझौली सैंकड़ो इकाइयां है। भारत में अदालतों-पुलिस के भ्रष्टाचार और जमीनों के कानून के कारण छोटी-मझौली इकाइयों का आधार नहीं है।

3.6. क्या ऐसी स्थिति में तकनीक का हस्तांतरण हो सकता है?

भाषण एवं किताबों में तो हो सकता है, लेकिन धरातल पर होना संभव नहीं है। जब आपके पास ऐसा कोई ढांचा ही नहीं है कि तकनिकी विकास हो, तो आप सिर्फ तब तक टिकोगे जब तक आपको तकनीक दी जा रही है। और जैसे जैसे जैसे वक्त गुजरेगा, यह तकनीक आउट डेटेड होकर बाजार से बाहर हो जायेगी। और चूंकि आपके पास नयी तकनीक का अविष्कार करने का कोई ढांचा नहीं है, अत: आप उन कम्पनियों से पिछड़ना शुरू कर दोगे जिनके पास तकनीक का अविष्कार करने का इन्फ्रास्ट्रक्चर है !!

आशय यह है की, यदि हीरो मोटर्स होंडा के साथ अगले हजार साल की पार्टनरशिप भी कर ले और होंडा पूरी ईमानदारी से तकनीक ट्रांसफर करने की कोशिश करे तो भी आप होंडा के सामने टिक नहीं पाओगे। क्योंकि होंडा के देश में तकनीक पैदा करने का आधार है। भारत में नहीं है। दुसरे शब्दों में वह अपना खून खुद से बनाता है, और आप डायलिसिस पर रहते है !!

3.7. तो ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में जो कुछ हुआ उसका नतीजा यह आया :

होंडा ने 1985 में हीरो के साथ जॉइंट वेंचर बनाकर कारखाने लगाए। हीरो हौंडा, स्पेल्नडर आदि बाइक उनके जॉइंट प्रोडक्ट है। दुसरे शब्दों में होंडा ने हीरो को मोटर साईकिले बनाना सिखाया। इन सभी बाइक्स का बेसिक मॉडल CD-100 है। स्प्लेंडर भी इसी का एक वर्जन है। कृपया इसे इस तरह से नहीं समझे कि – होंडा ने हीरो मोटर्स को दुपहिया ऑटोमोबाइल के क्षेत्र की तकनीक सिखाई। क्योंकि शब्द मोटर साइकिल में सिर्फ मोटर साईकिल शामिल है, स्कूटर नहीं!!

अब 1999 में होंडा ने खुद को हीरो से अलग किया, और टू व्हीलर बनाने की अपनी अलग कम्पनी बनाकर अपना सेपरेट प्लांट लगाया। और सेपरेट प्लांट लगाने के साथ ही होंडा ने एक्टिवा नाम का सुपर टू व्हीलर बाजार में उतारा। और आज स्थिति यह है कि पूरे भारत में जितने भी प्रकार के टू व्हीलर बिकते है, उनमे होंडा एक्टिवा नम्बर 1 पर है !! हीरो ने फाईट देने के लिए स्कूटर के कई मॉडल उतारे है, लेकिन दूर दूर तक कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं है !! स्कूटरों को तो छोड़िये, एक्टिवा को सभी मोटर साइकिले मिलकर भी कम्पीटीशन नहीं दे पा रही है !!

और दुसरे नंबर पर कौनसी दुपहिया है ? स्प्लेंडर !! और इसे भी होंडा ने बनाया है।

तो हीरो बेहतर स्कूटर क्यों नहीं बना पा रही है ?

क्योंकि तकनीक सिर्फ मोटर साइकिल की मिली है, स्कूटर की नहीं। और भारत में वो बेस नहीं है कि हीरो खुद से आला दर्जे का स्कूटर बनाने की तकनीक पैदा कर सके। यहाँ तक कि हीरो मोटर साइकिल में भी स्प्लेंडर से बेहतर मोटर साइकिल नहीं बना पा रहा है। वह उसी मोटर साइकिल पर टिका हुआ है. जो उसे होंडा ने 30 साल पहले दी थी!!

और कैसे जल्दी ही हीरो और अन्य भारतीय ऑटोमोबाइल कम्पनियां मोटर साइकिल का बाजार भी खो देगी और पूरे वाहन उद्योग पर विदेशियों का नियंत्रण हो जाएगा?

देखिये, भारत में इलेक्ट्रिक इंजन और बैटरी से चलने वाले वाहन बनाने का बेस शून्य है। मतलब एकदम जीरो है। मोटर साइकिलें बनाने का आधा अधुरा बेस होने और इतनी बड़ी कम्पनी होने के बावजूद हीरो से बेहतर स्कूटर नही बन पा रहा है। अभी आने वाले 4-5 साल में ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री इलेक्ट्रिक इंजन और बेटरी से चलने वाले वाहनों पर शिफ्ट होना शुरू करेगी। विदेशी कम्पनियां इसके मॉडल उतारेगी और भारतीय ऑटो मोबाइल कंपनियों के पास कोई भी विकल्प नहीं रहेगा।

भारतीय कम्पनियां इलेक्ट्रिक वाहन उतारने की सोच भी नहीं सकते। जबरदस्ती कोशिश भी करेंगे तो वैसे ही पिटेंगे जैसे एक्टिवा से पिट रहे है। तब उनका धंधा सिकुड़ने लगेगा और वे ऑटो मोबाइल का काम छोड़कर चूरन, अचार, पापड़, चटनी, साबुन, तेल, शेम्पू आदि बेचना शुरू कर देंगे, या फिर रियल एस्टेट, होटल्स, मॉल्स आदि जैसे चिल्लर धंधो में उतर जायेंगे !! इसे रोका नहीं जा सकता।

ऍफ़डीआई और खासकर जीएसटी आने के बाद पूरा देश एक विशाल कत्लखाने में बदल चुका है। हर साल विदेशियों का मार्केट शेयर बढ़ रहा है और स्थानीय इकाइयों का घट रहा है। रिलायंस तक अपनी रिफायनरी बचा नहीं पा रहा है, अभी उन्होंने भी 20% बेचा है। तो ऑटोमोबाइल कहाँ तक बचेगा। और भारत में जितनी कारें बन रही है उनमे से कितनी कारो के इंजन आयातित है ?

तो आज के 35 साल पहले जब हौंडा कम्पनी भारत में आयी थी तो उन्हें बाध्य किया गया कि वे मोटर साइकिल बनाने की तकनीक किसी भारतीय कम्पनी (हीरो) को ट्रांसफर करें। और होंडा ने ऐसा ही किया। उन्हें पता था कि एक दिन उन्हें अपनी अलग कम्पनी खोलनी है, और उसे खड़ी करने के लिए उनके पास एक धाँसू प्रोडक्ट होना चाहिए।

और 15 साल साथ में काम करने के बाद भी जब होंडा अलग हुआ तो उसने हीरो को जमा कर दिया। और यहाँ एक बात को समझना जरुरी है कि हीरो सिर्फ तब तक अपनी स्प्लेंडर बेच पा रहा है, जब तक होंडा उसे बेचने दे रहा है। जिस दिन होंडा ने हीरो को बाइक के मार्केट से बाहर करने का फैसला किया उस दिन हीरो बाइक के बाजार से भी बाहर हो जायेगा। किन्तु यदि होंडा एक साथ इतना गदर मचाएगा तो बवाल हो सकता है।

अत: वे ऐसा धीरे धीरे करेंगे। अब आप इस आधार पर भारत की अन्य ऑटोमोबाइल कम्पनियों की भी पड़ताल कर लीजिये, बहुधा मामलो में नतीजा यही है !! और इस पूरे मामले में सबसे बड़ी समस्या यह है कि होंडा जितना भी रुपया भारत में कमा रही है, हमें उसके डॉलर चुकाने होते है। यह असली चिंता का विषय है।

जैसे जैसे होंडा, सुजुकी और अन्य विदेशी कम्पनियो का मार्किट बढ़ेगा वैसे वैसे हम पर डॉलर चुकाने का बोझ बढ़ेगा। तो हमें हीरो का व्यापार बढ़ने में दिलचस्पी इसीलिए होनी चाहिए, क्योंकि हीरो हम पर डॉलर चुकाने का दायित्व नहीं बढ़ाता !! और आर्थिक विशेषज्ञ जब भी ऑटोमोबाइल क्षेत्र के विकास की बात करते है, तब वे इस पॉइंट को टच नहीं करना चाहते कि ये डॉलर वे कहाँ से लाने वाले है || तो इस पूरे मुनाफे के बदले में हमें डॉलर चुकाने है — यह एफडीआई का सबसे जानलेवा पहल है। और यही डॉलर हमें बुलेट ट्रेन वालों को भी चुकाने है !!

अब बुलेट ट्रेन पर आइये ॥

35 साल पहले ऑटो मोबाइल क्षेत्र में जो ऍफ़डीआई आयी थी और हमारी शर्तो में आयी थी, उसने हमें दो दशक पहले बाजार से बाहर होने से बचा लिया था, लेकिन हमेशा के लिए नही। दुसरे शब्दों में हमें इस बात को भी अच्छे से समझ लेना चाहिए कि तकनीक हस्तांतरण जैसी कोई चीज दुनिया में नहीं पायी जाती है। वो आपको मोबाइल और स्कूटर की तकनीक दे नहीं सकते बुलेट ट्रेन की तकनीक हस्तांतरण करने की तो बात करने से भी आपका चालान कट जाएगा।

जो लोग सफलता पूर्वक मोटर साइकिले बना रहे है उनसे स्कूटर इसीलिए नहीं बन रहे क्योंकि दोनों में जो अंतर है, वह अंतर देखने में भले ही आपको मामूली लगे पर यह अंतर निर्णायक बन जाता है। क्या आपको अंदाजा है बुलेट ट्रेन किस दर्जे की तकनीक है?

अब्बल तो बुलेट ट्रेन की तकनीक ट्रांसफर ही नहीं की जा सकती। और यदि ट्रांसफर करना भी हो तो आपको कोई ऐसी कम्पनी चाहिए जो ट्रेन के इंजन बनाती हो। अब पंखे कूलर बनाने वाली कम्पनियों को तो यह तकनीक ट्रांसफर नहीं हो सकती। और भारत में ट्रेन के इंजन बनाने वाली कितनी निजी कम्पनियां है ? क्योंकि सरकारी कम्पनियां तो बेची जा रही है। तो उन्हें तो आप गिनिये मत।

और जापानी तो यहाँ पर कोई जॉइंट वेंचर नहीं लगाने वाले है !! भारत में एकाधिकार और गारंटिड मार्किट के साथ आ रहे है। उनकी किसी के साथ कोई पार्टनरशिप नहीं है। वे जटिल कोम्पोनेंट जापान से आयात करेंगे और उन्हें यहाँ असेम्बल करके ट्रेन चलाएंगे। दुनिया में बुलेट ट्रेन, हवाई जहाज जैसी तकनीके ट्रांसफर नहीं होती, और न ही इसे ट्रांसफर किया जा सकता है।

मतलब चाहकर भी ट्रांसफर नहीं किया जा सकता। इस तरह की आला दर्जे की तकनिकी के लिए पहले खुद की नीवें डालनी पड़ती है। और यही वजह है कि आज दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं जिसने इस तरह की तकनीक को ट्रांसफर के जरिये हासिल कर लिया हो। जिन भी देशो ने इसे बनाया है, खुद से ही सीखा है।

सार की बात यह है कि – बुलेट ट्रेन आने से भारत के पास बुलेट ट्रेन बनाने की तकनीक आ जायेगी यह एक बहुत ही आला दर्जे का भ्रम है। और पेड मिडियाकर्मी और आर्थिक विशेषज्ञ यह ट्रेजेडी नुमा सीरियस कॉमेडी भारतीयों को परोस रहे है !!

(4) विदेशी कम्पनियों के भारत में हथियार निर्माण के कारखाने लगाने के पक्ष में दिए जाने वाले गलत तर्क

4.1. डिफेन्स में एफडीआई आने से भारत में टेक्नोलोजी ट्रांसफर होगा !!

जटिल तकनीक के मामले में टेक्नोलोजी ट्रांसफर सिर्फ एक थ्योरी है, और व्यवहारिक रूप से जटिल निर्माण की तकनीक ट्रांसफर की ही नहीं जा सकती। और हथियारों के निर्माण में टेक्नोलोजी ट्रांसफर की बात करना एक निर्मम मजाक है। दुनिया के किसी देश ने आज किसी भी देश को हथियारों की तकनीक का हस्तांतरण नहीं किया है, और न ही किया जा सकता है।

4.2. भारत अभी हथियार आयात कर रहा है, अत: विदेशी भारत में आकर हथियार बनाते है तो हमें कोई नुकसान नहीं !! यह तर्क देने वाले इस बिंदु को जानबुझकर गायब कर देते है कि, किन कानूनों को गेजेट में छापने से भारत स्वदेशी तकनीक आधारित जटिल हथियारो का निर्माण कर सकता है।

तो पहले वे भारत में हथियार निर्माण संभव बनाने के लिए आवश्यक कानूनों का विरोध करते है, जिससे हमें हथियार आयात करने पड़ते है, और फिर वे कहते है कि भारत को हथियार आयात करने पड़ रहे है, अत: हमें विदेशियों को बुलाकर भारत में हथियार बनाने के कारखाने लगाने के लिए कहना चाहिए !!

  1. जब तक विदेशी निवेश की सीमा 49% थी तब तक विदेशी किसी हथियार कम्पनी पर अपना स्वामित्व नहीं ले सकते थे। 74% स्टेक के बाद अब हथियार निर्माण कम्पनियों पर विदेशियों का स्वामित्व निर्णायक जाएगा। अत: अब अमेरिकी-ब्रिटिश-फ्रेंच कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर हथियार निर्माण के कारखाने लगाएगी।
  2. जब विदेशी भारत में आकर हथियार बनायेंगे तो नेताओं को धमका कर | उन्हें ब्राइब / म्राइब देकर सरकारी हथियार कम्पनियों का बचा खुचा बेस भी तोड़ देंगे। इससे हम हथियारों के निर्माण में विदेशियों पर और भी निर्भर हो जायेंगे। हथियार निर्माण की सरकारी कम्पनियों को अब धीरे धीरे या तो बंद कर दिया जाएगा या विदेशी इनका अधिग्रहण कर लेंगे।
  3. पेड मीडिया पूरी तरह से हथियार कम्पनियों के नियंत्रण में काम करता है। अत: हथियार कंपनियों के भारत में सीधे घुस आने के बाद मीडिया की शक्ति विस्फोटक रूप से बढ़ेगी, जिससे भारत के नेताओ की निर्भरता अमेरिकीब्रिटिश धनिकों पर और भी बुरी तरह से बढ़ जायेगी।
  4. हथियार कम्पनियों का मुख्य धंधा खनिज लूटना है। अत: अब वे भारत के नेताओं से ऐसे क़ानून छपवाएंगे जिससे वे लगभग मुफ्त में भारत के मिनरल्स लूट सके। तो अभी भारत के प्राकृतिक संसाधन की बहुत बड़े पैमाने पर लूट होने वाली है। और यह लूट पूरी तरह से कानूनी होगी।
  5. ये कम्पनियां जितना मुनाफा बनाएगी उसके बदले हमें डॉलर चुकाने होंगे। पहले हम हथियार लेने के लिए सीधे डॉलर चुका रहे थे, और अब रिपेट्रीएशन के रूप में डॉलर चुकायेंगे। मतलब ऍफ़डीआई डॉलर संकट में कोई कमी नहीं लाता, बल्कि इसमें इजाफा ही करता है।

कुल मिलाकर, विदेशियों को भारत में हथियार बनाने की अनुमति देने के मतलब है कि हम अपना देश अधिकृत रूप से गंवा देंगे। ज्यादातर सम्भावना है कि, अगले 3-4 वर्ष में यह सीमा 100% बढ़ा दी जायेगी और तब हम घोषित रूप से एक परजीवी / गुलाम देश होंगे। हमें ऐसे कानून चाहिए कि हम अपने हथियार खुद से बना सके। और स्वदेशी हथियारों अक उत्पादन करने के लिए हमें टेक्स के क़ानून एवं अदालतें सुधारने की जरूरत है। 1990 तक भारत में परमिट राज था।

हथियारों के निर्माण में न तो निजी कम्पनियों को मुक्त रूप से उत्पादन करने की छूट थी, और न ही विदेशी कम्पनियों को। किन्तु WTO समझौते के बाद जब लाइसेंस राज खत्म किया गया तो राष्ट्रिय सुरक्षा का विषय होने के कारण हथियारों के उत्पादन में विदेशी निवेश पर प्रतिबन्ध जारी रखा गया। और अब जब विदेशी भारत में आकर हथियार बनायेंगे तो वे हमारी बची खुची हथियार इकाइयों को पूरी तरह से निगल जायेंगे।

(5) भारत अन्तरिक्ष प्रोग्राम में इतना सफल होने के बावजूद तेजस का इंजन क्यों नहीं बना पाया ?

तकनीकी वस्तुओ की 2 श्रेणियां है।

. ऐसे मिशन जिन्हें बंद इमारतों यानी लैब आदि में चलाया जा सकता है। . ऐसे प्रोजेक्ट जिनमे खुले बाजार की जरूरत होती है।

पहली श्रेणी में वे वस्तुएं आती है जिनका अविष्कार | विकास / उत्पादन एक बंद इमारत में 50-100 लोगो की प्रतिभाशाली टीम द्वारा किया जा सकता है। इन वस्तुओं का आविष्कार एवं विकास करना अपेक्षाकृत आसान है। इसके लिए आप देश भर में से 1000-500 प्रतिभाशाली इंजीनियरों का चयन करिए और उन्हें सभी सुविधाओ से युक्त लेब दे दीजिये। ये सभी वैज्ञानिक समर्पित होते है, इनमे अनुशासन का स्तर उच्च होता है, इन्हें आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा मुहैया होती है, और इस वजह से ये अपना 100% अपने काम में लगाते है।

5.1. अन्तरिक्ष प्रोग्राम लेब में चलाया जा सकता है किन्तु इंजन बगेरह लेब में नहीं बनाए जा सकते !!

अन्तरिक्ष प्रोग्राम इसी श्रेणी की तकनीक है। तो यदि सरकार अन्तरिक्ष प्रोग्राम चलाना चाहती है इस मॉडल को सफलतापूर्वक लागू कर सकती है। परमाणु कार्यक्रम भी इसी श्रेणी की तकनीक है। अत: इसमें भी यह मॉडल सफलतापूर्वक काम करेगा।

किन्तु एक इंजन में कई प्रकार की इंजीनियरिंग का इस्तेमाल होता है। और विमान बनाने में तो दुनिया का ऐसा कोई भी विज्ञान | तकनीक नहीं है, जिसका इस्तेमाल न होता हो। और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए निरंतर वातावरणीय परीक्षणों की जरूरत होती है। यदि आप इसे लेब में बनाने जायेंगे तो इसे कभी भी नहीं बनाया जा सकता। यदि आपने इसे बना भी लिया तो यह प्रभावी नहीं होगा।

उदाहरण के लिए अमेरिका के लड़ाकू विमान चीन से ज्यादा उन्नत है। वजह यह है कि अमेरिका में रक्षा उपकरणों में निजी क्षेत्र की भागीदारी है।

भारत में कोई भी निजी कम्पनी विमानों का इंजन बनाने पर काम नहीं करती !! इस वजह से यह एक नियंत्रित कार्यक्रम है।। मतलब आपने 500-1000 वैज्ञानिको को इस मिशन पर लगाया हुआ है कि वे इंजन बनाकर दें। भारत में वैमानिक इंजीनियरिंग की क्षमता रखने वाले लाखों इंजीनियर्स है किन्तु उनके पास इसके लिए प्रयास करने का कोई अवसर नहीं है।

5.2. तो क्या भारत विमान का इंजन बनाने की क्षमता नहीं है ?

नही !! ऐसा नहीं है। भारत इंजन बनाने में असफल नहीं हुआ है। हद से हद हम यह कह सकते है कि असफल बे इंजीनियर हुए है जिन्हें हमने पिछले 45 सालो से इंजन बनाने पर लगा कर रखा हुआ है। और इन्हें भी असफल इसीलिए नहीं कहा जाना चाहिए। क्योंकि हमने इन्हें एक गलत मॉडल पर काम करने के लिए बाध्य किया हुआ है। लैब में इंजन बना लेना चांस लेने वाली बात है !! इसका सही मेथड है कि इसे खुले बाजार में ही बनाया जा सकता है। और ये 500-1000 इंजीनियर्स भारत नहीं है !!

भारत में ऐसे हजारो इंजीनियर्स है जो सफलतापूर्वक विमान का इंजन बना सकते है। किन्तु भारत में निजी क्षेत्र के लोगो को विमान का इंजन बनाने का प्रयास करने की अनुमति नहीं है !! भारत में ऑटो मोबाईल एवं तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली सैंकड़ो कम्पनियां है, जो इंजन बनाने का प्रयास कर सकती है। ऐसे हजारो भारतीय निवेशक है जो इंजन बनाने के प्रोजेक्ट पर पैसा लगा सकते है। ऐसे लाखों इंजीनियर्स है, जो कोशिश कर सकते है।

लेकिन यदि किसी निजी व्यक्ति को इंजन बनाने के प्रोजेक्ट पर काम करना है तो उसे पहले सरकार से लाइसेंस लेना होता है !! लाइसेंस वे कभी देते नहीं है। और लाइसेंस देने से पहले ही कम्पनी के पूरे प्राण पी लेते है। जाहिर है निजी कम्पनीयों ने इसके लिए प्रयास नहीं किये !!

दुसरे शब्दों में भारत में इंजन बनाने की कम्पनी खोलना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है !! और फिर जो गिनी चुनी निजी कम्पनियां हथियार निर्माण में काम कर रही है, उन्हें तकनिकी सपोर्ट देने के लिए भारत में छोटे-मझौले कारखानों का कोई कोई आधार नहीं है !! और छोटे कारखानों का आधार इसलिए नहीं है क्योंकि जूरी सिस्टम न होने के कारण हम जज-पुलिस-नेताओं के भ्रष्टाचार से कारखाना मालिको की रक्षा नहीं कर पा रहे है।

5.3 भारत चंद्रयान बना देता है लेकिन टैंक का इंजन क्यों नहीं बना पाता ?

टैंक से लेकर सेना के इस्तेमाल में काम आने लायक सभी साजो सामान एवं उपकरण हम नहीं बनाते। और जो भी बनाते है वह काम में लाने लायक नहीं बल्कि काम निकालने लायक होती है। और इसकी एक मात्र और एक मात्र वजह यह है कि हमने ऐसे प्रशासन की रचना नहीं की है कि निजी क्षेत्र इसमें आसानी से निवेश कर सके और पुलिस-जजों से हम उनकी रक्षा कर सके।

अर्जुन टैंक का प्रोजेक्ट भी हमने 1980 के आस पास ही शुरू किया था। इस पर भी खरबों रुपये निवेश करके इंजन बनाकर परिक्षण भी किया गया। लेकिन अत: में हमें जर्मनी से इंजन लेने पड़े!! वजह – एक बेहतर इंजन लैब में नहीं बनाया जा सकता !!

इंसास रायफल की भी यही दशा है। हमने सेना को 20 साल तक बाध्य किया कि वह इस कमतर रायफल का इस्तेमाल करें। लेकिन एक सीमा के बाद 2013 में सेना ने हाथ खड़े कर दिए और अब इंसास को हटाया जा रहा है। हम अब फिर से विदेशी रायफलों पर अपनी सेना चलाने वाले है !! वजह – एक बेहतर रायफल लैब में नहीं बनायी जा सकती !! और रायफल बनाने के लिए छोटे-मझौले कारखानों का वो आधारभूत ढांचा चाहिए वो हमारे पास नहीं है !!

(8) फिर भारत मिसाइलें बनाने में कैसे सफल हुआ ?

जैसा कि मैंने बताया कि हथियारों का निर्माण करने का मेथड यह है कि इसका विकास बाजार में किया जाता है, लेब में नहीं। यदि आप लैब में इसका उत्पादन करने की कोशिश कर रहे है तो यह चांस लेने वाली बात है। तो कभी आप सफल हो जाते, और कभी नहीं होते !!

निचे बताया गया है कि कैसे रोकेट बनाने की तकनीक हम तक पहुंची और कैसे हमने इसका इस्तेमाल करके मिसाइले खड़ी की। और कैसे यह मेथड नहीं बल्कि शुद्ध रूप से एक लॉटरी यानी किस्मत थी !! या दुसरे शब्दों में कहे तो वक्त हमारे साथ था !!

1960 की बात है जब अमेरिका को भारत के थुम्बा* से एक सेटेलाइट लांच करना था। भारत के इंजीनियरों को शुरूआती चरणों की ट्रेनिंग देने के लिए कुछ इंजीनियरों को नासा ने अमेरिका बुलाया।

और इस दल में डॉ कलाम भी थे। ये लोग 4 महीने नासा में रूके ताकि अमेरिकी सेटेलाइट की उड़ान के लिए भारत में प्राथमिक तैयारियां कर सके। 1963 में अमेरिका ने अपना सेटेलाईट थुम्बा से छोड़ा।

और इसके बाद फ़्रांस, सोवियत रूस आदि देशो ने भी अपने कई सेटेलाईट थुम्बा से प्रक्षेपित किये। चुंबकीय भूमध्य रेखा के बेहद समीप होने के कारण थुम्बा अंतरिक्ष प्रक्षेपण के लिए आदर्श स्थल है। तो भारत को प्रकृति ने थुम्बा दिया और अमेरिका समेत कई देशो को भारत को सहयोगी बनाना पड़ा !!

1965 में होमी जहांगीर भाभा ने भारत में सेटेलाईट लांचर विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया, और इसी क्रम में भारत ने नासा से इसका एक प्रोटोटाइप माँगा। अमेरिका ने इसकी तकनीक देने से इंकार कर दिया। इसी बीच डॉ कलाम ने भारत सरकार को बताया कि उन्होंने नासा में रहते हए वे तमाम बारीकियां पकड़ ली है जिससे हम अपना व्हीकल बनाने का प्रोजेक्ट शुरू कर सकते है !!

डॉ कलाम एवं उनकी टीम ने इस पर काम करना शुरू किया और भारत ने अपना पहला सेटेलाईट व्हीकल बनाकर सफलता पूर्वक प्रक्षेपण किया। भारत द्वारा बनाया गया यह व्हीकल हूबहू अमेरिका के व्हीकल के समान था। तकनीक, आकार, वजन से लेकर लम्बाई भी।

और कैसे हमने सेटेलाईट तकनीक का इस्तेमाल भारत में मिसाइले खड़ी करने में किया ?

इसी दौरान फ़्रांस द्वारा भी भारत से एक व्हीकल लांच किया गया था। फ़्रांस के प्रोजेक्ट से डॉ कलाम ने राकेट में तरल इंधन का इस्तेमाल करने की तकनीक पकड़ी। बाद में तरल इंधन की इस तकनीक का प्रयोग पहले पृथ्वी एवं बाद में अग्नि मिसाइलो में किया गया। जर्मन के साथ 1976 में सेटेलाईट प्रोजेक्ट पर काम करते हुए डॉ कलाम ने कंपोजिट मेटल और गाइडेंस सिस्टम की बारीकियां पकड़ी और बाद में इनका इस्तेमाल मिसाइलो को बनाने में किया गया। और अंत में जर्मनी के साथ सेटेलाईट प्रोजेक्ट पर काम करते हुए भारत को APC-Rex (Motorola 68000 microprocessor) मिला जिसने हमारी मिसाइल तकनीक की अंतिम जरूरत पूरी की।

jury system

(i) tinyurl.com/MissileTech


(ii) tinyurl.com/MissileTech2

https://www.wisconsinproject.org/indias-missiles-with-a-little-help-from-our-friends/#note-1-ref

Bulletin of the Atomic Scientists

परमाणु बम के लिए भारत को तकनीक अमेरिका और कनाड़ा से मिली। कनाड़ा ने भारत को एक रिएक्टर और अमेरिका ने हेवी वाटर दिया था। ये हस्तांतरण पीस प्रोजेक्ट यानी पॉवर प्लांट आदि के लिए था। इंदिरा जी ने इसका इस्तेमाल परमाणु बम की तकनीक विकसित करने में किया और परमाणु धमाके किये। डॉ भाभा थोरियम के परमाणु रिएक्टर की तकनीक पर काफी बढ़ चुके थे। अंतत: रहस्यमयी स्थितियों में उनकी हत्या कर दी गयी।

(7) भारत के तकनिकी उत्पादन में पिछड़ जाने के बारे में पेड मीडिया द्वारा फैलाये गए गलत एवं अस्पष्ट जवाब जो चलन में है।

7.1. भारत में R&D नहीं है।

जो लोग कहते है कि भारत में R&D नहीं है। बे इस बारे में कभी कुछ नहीं कहते है कि R&D क्यों नहीं है !! उनका कहना होता है कि, बस R&D नहीं है। बात ख़त्म। और इस सवाल को वे टाल देते है कि R&D बढे इसके लिए गेजेट में कौनसे क़ानून छापने है।

मेरा जवाब है कि, जब हथियार बनाने की अनुमति ही नहीं है तो R&D किस पर करेंगे? हवा में ? पैसा कौन लगाएगा? और कहाँ लगाएगा। और यदि आपने करोड़ो रूपये घूस खिलाकर लाइसेंस ले भी लिया तो पुलिस-जजों-नेताओं को घूस दोगे या R&D पर निवेश करोगे !!

तो R&D वही कर सकता है जिसके पास नेता-पुलिस-जज को कंट्रोल करने की क्षमता हो। सिर्फ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही ऐसा कर सकती है। और जब वे आते है तो जीएसटी जैसे कानून छपवाकर मार्केट में से सभी छोटी कम्पनियों को साफ़ कर देते है। और भारत की अदालतों की जो दशा है ऐसे में आपके R&D को सुरक्षा कितनी है? आप वर्षों तक पैसा लगाओ और फिर यह तकनीक कोई और चुरा लेगा, और फिर आप अगले कई दशको तक अदालतों के धक्के खाओ यह साबित करने में कि तकनीक आपने खोजी थी!!

तो हमारी अदालतों ने बौद्धिक संपदा को लूटना या उसमे फच्चर फंसाना बेहद आसान बना के रखा है !! तो इधर कोई R&D पर निवेश करने वाला नहीं है !! पहले अदालते सुधारों, फिर R&D पर पैसा लगाने की बात करो!! बर्ना जो आदमी पैसा लगाएगा उसे कुछ नहीं मिलेगा और उसके एम्प्लोयी ही उसकी रिसर्च पर कब्ज़ा कर लेंगे !!

7.2. भारत के लोगो में देशप्रेम नहीं है, इसीलिए काबिल लोग देश छोड़ देते है। मतलब Brain Drain !!

ब्रेन ड्रेन क्यों है, और इसे रोकने के लिए कौनसे क़ानून छापने है-यह सवाल वे लेते नहीं है।

मेरा जवाब है कि, हर आदमी बेहतर अवसर और बेहतर जगह की तलाश में रहता है। भारत में विमान के इंजन, टैंक के इंजन, रायफल आदि बनाने की कितनी कम्पनियां है? जीरो!! तो टेलेंटेड इंजीनियर्स इधर बैठकर क्या करेंगे!! तुम लोग मोबाइल और पंखो के केपिसिटर बनाने की कम्पनियां नी पनपने दे रहे हो जटिल इंजीयरिंग की तो बात ही दूर है। अपना देश कोई नहीं छोड़ना चाहता !!

पर हमने गेजेट में कानून ही ऐसे छापे है कि अपने आप ही देश छूट जाता है। एक जमीन खरीद कर 3-4 साल तक उधर न जाओ तो कोई भी इस पर कब्ज़ा कर लेता है, और इसे वापिस हासिल करने में दशको तक अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते है !! ये दशा है क़ानून व्यवस्था की !! तो ब्रेन ड्रेन तो होना वाजिब है !! अमेरिका-फ्रांस-रूस से कितना ब्रेन ड्रेन हो रहा है यहाँ पर?

7.3. भारत में राजनैतिक भ्रष्टाचार है, नौकरशाही सुस्त है, राजनैतिक संस्कृति निम्न है आदि

असल में राजनैतिक संस्कृति नाम की तो कोई चीज होती ही नही है। और जहाँ तक शासकीय सुस्ती एवं भ्रष्टाचार का सवाल है, भारत की अदालतों ने देश का कबाड़ा किया हुआ है। देश में सारा भ्रष्टाचार और अपराध सिर्फ इसीलिए है क्योंकि हमारे जज भ्रष्ट है। वे पैसा खाकर अपराधियों को या तो छोड़ देते है या तारीख पर तारीख देते रहते है। और जिस देश में जज भ्रष्ट हो जाते है,

वहां कानून नाम की कोई चीज नहीं होती है। तब चयनात्मक न्याय होता है। यदि जेब में पैसा और रसुख है तो कानून आपकी जेब में है। और जजों के भ्रष्टाचार पर ये ज्ञानी और बुद्धिजीवी लोग बात नहीं करना चाहते। और यदि बात करते भी है तो यह बिंदु कभी नहीं उठाने देते कि गेजेट में क्या छापने से अदालतें ठीक होगी।

सार यह है कि, हमने भारत में ऐसे प्रशासन की रचना की है कि जब कोई आदमी पैसा फेंकने लगता है तो उसका काम हो जाता है, और फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कानून में क्या लिखा है।

पैसा फेंक कर काम करवाने की व्यवस्था की रचना होने के कारण भारत में सभी स्तर पर भ्रष्टाचार पनपा और छोटे-मझौले कारखाना मालिक पुलिस-नेता एवं सरकारी अधिकारीयों का आसान शिकार बन गए। और पुलिस-नेता-अधिकारियों के भ्रष्टाचार की वजह यह है कि हमारी अदालतें उन्हें सजा नहीं देती। दुसरे शब्दों में, भ्रष्ट जजों ने पूरे देश का कबाड़ा कर दिया।

इसके उलट बोट वापसी कानूनों के अलावा जूरी कोर्ट होना सबसे बड़ी वजह रही कि अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देश भारत जैसे देशो से तकनीक के क्षेत्र में आगे, काफी आगे निकल गए। जूरी सिस्टम जूरी मंडल ने वहां के छोटे-मझौले कारखाना मालिको की जज-पुलिस-नेताओं के भ्रष्टाचार से रक्षा की और वे तकनिकी रूप से उन्नत विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खड़ी कर पाए !!


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